________________
षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
४०० विवक्षित शरीर सम्बन्धी पुद्गलस्कन्धों की आगमनपूर्वक होने वाली निर्जरा संघातन-परिशातनकृति कहलाती है । वह यथासम्भव देव-मनुष्यादिकों के उत्पन्न होने के द्वितीयादिक समयों में होती है, क्योंकि, उस समय अभव्य राशि से अनन्तगुणे और सिद्ध राशि से अनन्तगुणे हीन औदारिकादि शरीर रूप पुद्गलस्कन्धों का आगमन और निर्जरा दोनों ही पाये जाते हैं।
उक्त विवक्षित शरीर के पुद्गलस्कन्धों की संचय के बिना होने वाली एक मात्र निर्जरा का नाम परिशातनकृति है । यह यथासम्भव देव-मनुष्यादिकों के उत्तर शरीर के उत्पन्न करने पर होती है, क्योंकि, उस समय उक्त शरीर के पुद्गलस्कन्धों का आगमन नहीं होता।
तैजस और कार्मण इन दोनों शरीरों की अयोगकेवली के परिशातनकृति होती है, कारण कि उनके योगों का अभाव हो जाने से बन्धका भी अभाव हो चुका है । अयोगकेवली को छोड़ शेष सभी संसारी जीवों के इन दोनों शरीरों की एक संघातन-परिशातनकृति ही हैं, क्योंकि, सर्वत्र उनके पुद्गलस्कन्धों का आगमन और निर्जरा दोनों ही पाये जाते हैं । उक्त दोनों शरीरों की संघातनकृति सम्भव नहीं है । कारण इसका यह है कि वह संसारी प्राणियों के तो हो नहीं सकती, क्योंकि, उनके उक्त दोनों शरीरों के पुद्गलस्कन्धों का जैसे आगमन होता है वैसे ही उसी के साथ निर्जरा भी होती है । अब रहे सिद्ध जीव सो उनके भी यह सम्भव नहीं है, क्योंकि, उनके बन्धकारणों का पूर्णतया अभाव हो चुका है।
आगे जाकर उपर्युक्त पांचों मूलकरणकृतियों की प्ररूपणा पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व, इन तीन अधिकारों द्वारा तथा सत्-संख्या आदि आठ अनुयोगद्वारों के भी द्वारा विस्तारपूर्वक की गई है।
असि, वासि, परशु, कुदारी, चक्र दण्ड, वेम व नालिका आदि उत्तरकरण अनेक मान जाते हैं। अत: एवं उत्तर करणों के अनेक होने से उनकी कृति रूप उत्तरकरणकृति भी अनेक प्रकार कही गई है।
___७. कृतिप्राभृतका जानकार उपयोग युक्त जीव भावकृति कहा जाता है। उपर्युक्त सातों कृतियों में यहां गणनकृति को प्रकृत बतलाया है, कारण कि गणना के बिना अन्य अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा असम्भव हो जाती है।