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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
३९९ कृतिअनुयोगद्वारों के उपादान कारण स्वरूप से स्थित है, परन्तु उसे करता नहीं है; वह भावी नोआगमद्रव्यकृति है । तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यकृति ग्रन्थिम, वाइम, वेदिम, पूरिम, संघातिम, अहोदिम, निक्खोदिम, ओवेल्लिम, उद्वेल्लिम, वर्ण, चूर्ण और गन्धविलेपन आदि के भेद से अनेक प्रकार हैं।
४. गणनकृति नोकृति, अवक्तव्यकृति और कृति के भेद से तीन भेद रूप अथवा कृतिगत संख्यात, असंख्यात व अनन्त भेदों से अनेक प्रकार भी है। इनमें से 'एक' संख्या नोकृति, 'दो' संख्या अवक्तव्यकृति और 'तीन' को आदि लेकर संख्यात असंख्यात व अनन्त तक संख्या कृति कहलाती है । संकलना, वर्ग, वर्गावर्ग, घन व घनाघन राशियों की उत्पत्ति में निमित्तभूत गुणकार, कलासवर्ण तक भेदप्रकीर्णक जातियां, त्रैराशिक व पंचराशिक इत्यादि सब धनगणित है । व्युत्कलना व भागहार आदि ऋणगणित कहलाते हैं । गतिनिवृत्तिगणित और कुट्टिकार आदि धन-ऋण गणित के अन्तर्गत हैं। यहां कृति, नोकृति और अवक्तव्यकृति के उदाहरणार्थ ओघानुगम, प्रथमानुगम, चरमानुगम और संचयानुगम, ये चार अनुयोगद्वार कहे गये हैं। इनमें संचयानुगम की प्ररूपणा सत्-संख्या आदि आठ अनुयोगद्वारों के द्वारा विस्तारपूर्वक की गई है।
५. लोक, वेद अथवा समय में शब्द सन्दर्भ रूप अक्षरकाव्यादिकों के द्वारा जो ग्रन्थ रचना की जाती है वह ग्रन्थकृति कहलाती है । इसके नाम, स्थापना, द्रव्य व भाव के भेद से चार भेद करके उनकी पृथक्-पृथक् प्ररूपणा की गई है।
६. करणकृति मूलकरणकृति और उत्तरकरणकृति के भेद से दो प्रकार है । इनमें औदारिकादि शरीर रूप मूलकरण के पांच भेद होने से उसकी कृति रूप मूलकरणकृति भी पांच प्रकार निर्दिष्ट की गई है । औदारिकशरीरमूलकरणकृति, वैक्रियिकशरीरमूलकरणकृति
और आहारकशरीरमूलकरणकृति, इनमें से प्रत्येक संघातन, परिशातन और संघातन-परिशातन स्वरूप से तीन-तीन प्रकार हैं । किन्तु तैजस और कार्मणशरीरमूलकरणकृति में से प्रत्येक संघातन से रहित शेष दो भेद रूप ही हैं।
विवक्षित शरीर के परमाणुओं का निर्जरा के बिना जो एक मात्र संचय होता है वह संघतनकृति है । यह यथासम्भव देव व मनुष्यादिकों के उत्पन्न होने के प्रथम समय में होती है, क्योंकि, उस समय विवक्षित शरीर के पुद्गलस्कन्धों का केवल आगमन ही होता है, निर्जरा नहीं होती।