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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
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कभी होते भी हैं और कभी नहीं भी होते। उसी प्रकार इन्द्रिय, काय, योग आदि मार्गणाओं में भी जीव सदैव रहते ही हैं, केवल वैक्रियिक मिश्र, आहार व आहारमिश्र' काययोगों में, सूक्ष्मसाम्पराय ' संयम में तथा उपशर्मा, सासादन' व सम्यग्मिथ्यादृष्टि 'समयक्त्व में, कभी रहते हैं और कभी नहीं भी रहते । इस प्रकार उक्त आठ मार्गणाएं सान्तर हैं और शेष समस्त मार्गणाएं निरन्तर हैं (देखो गो. जी. गाथा १४२ )
५. द्रव्यप्रमाणनुगम
इस अनुयोगद्वार के १७१ सूत्रों में भिन्न-भिन्न मार्गणाओं के भीतर जीवों का संख्यात्, असंख्यात व अनन्त रूप से अवसर्पिणी उत्सर्पिणी आदि काल प्रमाणों से अपहार्य व अनपहार्य रूप से एवं योजन, श्रेणी, प्रतर व लोक के यथायोग्य भागांश व गुणित क्रम रूप से प्रमाण बतलाया गया है। पूर्व निदेशानुसार जीवस्थान के द्रव्यप्रमाण व इस अधिकार के प्ररूपण में विशेषता केवल इतनी ही है कि यहां गुणस्थान की अपेक्षा नहीं रखी गई । ६. क्षेत्रानुगम
इस अनुयोगद्वार में १२४ सूत्रों में चौदह मार्गणानुसार सामान्यलोक, अधोलोक, उर्ध्वलोक, तिर्यग्लोक व मनुष्यलोक, इन पांचों लोकों के आश्रय से स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, सात समुद्घात और उपपाद की अपेक्षा वर्तमान निवास की प्ररूपणा की गई है। पूर्व के समान यहां भी गुणस्थानों की अपेक्षा नहीं रखी गई ।
७. स्पर्शनानुगम
इस अनुयोगद्वार में २७४ सूत्रों में गुणस्थानक्रम को छोड़कर केवल चौदह मार्गणाओं के अनुसार सामान्यादि पांच लोकों की अपेक्षा स्वस्थान, समुद्धात व उपपाद पदों से वर्तमान व अतीत काल सम्बन्धी निवास की प्ररूपणा की गई है ।
८. नाना जीवों की अपेक्षा कालानुगम
इस अनुयोगद्वार में ५५ सूत्रों में चौदह मार्गणानुसार नाना जीवों की अपेक्षा अनादिअनन्त, अनादि - सान्त, सादि - अनन्त व सादि - सान्त कालभेदों को लक्ष्य कर जीवों की प्ररूपणा की गई है ।
९. नाना जीवों की अपेक्षा अन्तरानुगम
इस अनुयोगद्वार में ६८ सूत्रों में चौदह मार्गणानुसार नाना जीवों की अपेक्षा बन्धकों के जघन्य व उत्कृष्ट अन्तरकाल की प्ररूपणा की गई है ।