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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका पुस्तक ५, पृ.९१
१९. शंका – यहां सूत्र १६९ व उसकी टीका में वैक्रिकिय काययोगियों में आदि के चार गुणस्थानों के अन्तर को मनोयोगियों के समान कहकर दोनों में नाना व एक जीव की अपेक्षा अन्तराभाव की समानता बतलाई है । परन्तु सूत्र १५४-१५५ में मनोयोगी सासादन सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका नाना जीवोंकी अपेक्षाजघन्य एक समय और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भागप्रमाण अन्तर बतलाया है । ओघकी अपेक्षा भी (सूत्र ५-६) उक्त दोनों गुणस्थानों में वही अन्तर बतलाया गयाहै । फिर यहां चारों गुणस्थानों में जो अन्तर का अभाव कहा गया है वह कैसे घटित होगा ?
- (नेमीचंद रतनचंद जी, सहारनपुर) समाधान – यहां सूत्र १६९ की टीका में 'अन्तराभावेण' से यदि 'अन्तर और उसके अभाव का अर्थ लिया जाय तो सामन्जस्य ठीक बैठ जाता है कि सासादनसम्यग्दृष्टि
और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों के नाना जीवों की अपेक्षा अन्तर तथा उन्हीं गुणस्थानों की एक जीव की अपेक्षा एवं मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टियों के नाना व एक जीव की अपेक्षा अन्तराभाव से वैक्रियिक काययोगियों की मनोयोगियों से समानता है। पुस्तक ५, पृ. ९९
२०. शंका - यहां सूत्र १८९ की टीका में स्त्रीवेदी अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण का अन्तर बतलाते हुए जो कृतकृत्यवेदक होकर अपूर्वकरण उपशामक होना कहा है वह किस अपेक्षा से है, क्योंकि, उपशमश्रेणी आरोहण क्षायिकसम्यग्दृष्टि या द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टि ही करते हैं, वेदकसम्यग्दृष्टि नहीं ? (नेमीचंद रतनचंद जी, सहारनपुर)
समाधान – यहाँ 'कृतकृत्यवेदक होकर अपूर्वकरण उपशामक हुआ' इसका अभिप्राय कृतकृत्यवेदक काल को पूर्ण कर क्षायिक सम्यक्त्वके साथ अपूर्वकरण उपशामक होने का है, न कि कृतकृत्यवेदक होने के अनन्तर समय में ही अपूर्वकरण उपशामक होने का । यह बात पुरुषवेदी अपूर्वकरण उपशामक के उत्कृष्ट अन्तर की प्रक्रिया से भी सिद्ध होती है, जिसके लिये देखिये सूत्र नं. २०३ की टीका । पुस्तक ५, पृ. १०२
२१. शंका - सूत्र १९७ में पुरुषवेदी सासादनसम्यग्दृष्टियों के अन्तरनिरूपण में पुरुषवेद की स्थिति प्रमाण परिभ्रमण कर अन्त में जो देवों में उत्पन्न होना कहा है यह कैसे