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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
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की विशुद्धता बढ़ाते हुए क्रमश: समस्त कर्मो की स्थिति को घटाते - घटाते जब अन्त: कोड़ाकोड़ी प्रमाण से भी कम कर लेता है तब फिर वह एक अन्तर्मुहूर्त तक मिथ्यात्व का अवघट्टन करता है, अर्थात् उसकी अनुभागशक्ति का घटा कर उसका अन्तकरण करता है, जिससे मिथ्यात्व के तीन भाग हो जाते हैं सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व । बस, यहीं उस जीव को प्रथम सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है ।
आगे के तीन सूत्रों में (८-१०) समस्त दर्शनमोहनीय कर्म के उपशमन के अधिकारी जीव का निर्देश किया गया है, जिसमें कहा गया है कि यह क्रिया चारों गतियों का कोई भी पंचेन्द्रिय संज्ञी गर्भोत्पन्न पर्याप्तक जीव कर सकता है।
फिर आगे सूत्र ११ में दर्शनमोह के क्षपण का प्रारंभ करने योग्य स्थान और परिस्थिति को बतलाया है कि अढ़ाई द्वीप समुद्रों की केवल उन पन्द्रह कर्मभूमियों में दर्शनमोह का क्षपण प्रारंभ किया जा सकता है जहां जिन भगवान् केवली व तीर्थंकर विद्यमान
। और १२ वें सूत्र में यह कह दिया है कि एक बार उक्त परिस्थिति में क्षपणा की स्थापना करके उसकी निष्ठापना अर्थात् पूर्ति चारों गतियों में से किसी भी गति में की जा सकती है। ऐसे क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त करने वाले जीव की योग्यता सूत्र १३ - १४ में बतलाई है कि जब वह क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति के उन्मुख होता है तब वह आयुकर्म को छोड़ शेष सात कर्मो की स्थिति को अन्तः कोड़ाकोड़ी धवलाकार के स्पष्टीकरणानुसार पूर्व से बहुत हीन होती है ।
आगे के सूत्र १५ और १६ में सकलचारित्र ग्रहण की योग्यता बतलाई गयी है कि उस समय जीव चारों घातिया कर्मो की स्थित तो अन्तर्मुहूर्त कर लेता है, किन्तु वेदनीय की बारह मुहूर्त, नाम और गोत्र की आठ मुहूर्त एवं शेष की स्थिति भिन्न मुहूर्त करता है।
सूत्रकार के इस संक्षेप निर्देश को धवलाकार ने इतना विस्तार दिया है और विषय को इतनी सूक्ष्मता, गम्भीरता और विशालता के साथ समझाया है जितना यह विषय और कहीं प्रकाशित साहित्य में अब तक हमारे देखने में नहीं आया । लब्धिसार का विवेचन भी इसके सन्मुख बहुत स्थूल दिखने लगता है ।
धवलाकार ने पहले तो पांचों लब्धियों का स्वरूप समझाया है (पृ. २७४) और फि र सम्यक्त्व के अभिमुख जीव के कितनी प्रकृतियों की सत्ता रहती है, उनमें कितना कैसा अनुभाग रहता है, किन प्रकृतियों का उदय रहता है व चारों गतियों में इनमें कितना क्या भेद