________________
है।
षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
३५३ समाधान – पृष्ठ ४० के अन्त में व ४१ के आदि में टीकाकार ने पंचेन्द्रिय पर्याप्त व योनिमतियों का भी निर्देश किया है एवं उपर्युक्त कथन से जो विशेषता है वह बतलाई है। पुस्तक ५, पृ.५१-५५
१६. शंका - यहां मनुष्यनियों में संयतासंयतादि उपशान्तकषायान्त गुणस्थानों का जो अन्तर कहा गया है वह द्रव्य स्त्री की अपेक्षा से कहा गया है या भाव स्त्री की ?
___(नेमीचंद रतनचंदजी, सहारनपुर) समाधान - इसका कुछ समाधान पुस्तक ३, पृ. २८-३० (प्रस्तावना) में किया गया है । पर यह समस्त विषय विचारणीय है । इसकी शास्त्रीय चर्चा जैन पत्रोंमें चलाई
(देखो जैन संदेश, ता. ११-११-४३ आदि) पुस्तक ५, पृ.६२
१७. शंका – सूत्र ९४ की टीका में भवनवासी आदि देव सासादनों के अन्तर को ओघ के समान कहकर उनके उत्कृष्ट अन्तर में दो समय और छह अन्तर्मुहूर्तो से कम अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण अन्तर की ओघ से समानता बतलाई है । परन्तु ओघ- निरूपण में बनिस्वत दो के तीन समयों को कम किया गया है । इस विरोध की संगति किस प्रकार बैठायी जाय ?
(नेमीचंद रतनचंद जी, सहारनपुर) समाधान - सूत्र नं. ९० की टीका में यद्यपि प्रतियों में 'तिहि समएहि' पाठ है, पर विचार करने से जान पड़ता है कि वहां वेहि समएहि' पाठ होना चाहिए,क्योंकि ऊपर जो व्यवस्था बतलाई है उसमें दो ही समय कम किये जाने का विधान ज्ञात होता है । अतएव सूत्र ९४ की टीका में जो दो समय कम करने का आदेश है वही ठीक जान पड़ता है। पुस्तक ५, पृ. ७३
१८. शंका – यहां अन्तरानुगम में सूत्र १२१,१८६, २०० और २८८ की टीका में क्रमश: तीन पक्ष तीन दिन व अन्तर्मुहूर्त, दो मास व दिवस पृथक्त्व, दो मास व दिवसपृथक्त्व, तथा तीन पक्ष दिन दिन व अन्तर्मुहूर्त से गर्भज जीव को संयतासंयत गुणस्थान में प्राप्त कराया है । क्या गर्भ के दिन घट बढ़ भी सकते हैं।
(नेमीचंदरतनचंदजी, सहारनपुर) ' समाधान – यह भेद उत्तर और दक्षिण प्रतिपत्तियों के भेदों पर से उत्पन्न हुआ है जिसके लिये देखिये पुस्तक ५ अंतरानुगम सूत्र ३७ की टीका पृ. ३२.