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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
३०२ अनुमान यही होता है कि वे सब किन्हीं गणित संबंधी जैन ग्रन्थों से, अथवा पूर्ववर्ती टीकाओं से लिये गये हैं। वे अंकगणित की किसी सारभूत प्रक्रिया का निरूपण नहीं करते। वे उस काल के स्मारकावशेष हैं जबकि भाग एक कठिन और श्रमसाध्य विधान समझा जाता था। ये नियम निश्चयत: उस काल के हैं जबकि दामिक-क्रम का अंकगणित की प्रक्रियाओं में उपयोग सुप्रचलित नहीं हुआ था।
त्रैराशिक - त्रैराशिक क्रिया का धवला में अनेक स्थानों पर उल्लेख और उपयोग किया गया है । इस प्रक्रिया संबंधी पारिभाषिक शब्द हैं - फल, इच्छा और प्रमाण-ठीक वही जो ज्ञात ग्रंथों में मिलते हैं। इससे अनुमान होता है कि त्रैराशिक क्रिया का ज्ञान और व्यवहार भारतवर्ष में दाशमिक क्रम के आविष्कार से पूर्व भी वर्तमान था।
अनन्त बड़ी संख्याओं का प्रयोग - 'अनन्त' शब्द का विविध अर्थो में प्रयोग सभी प्राचीन जातियों के साहित्य में पाया जाता है। किन्तु उसकी ठीक परिभाषा और समझदारी बहुत पीछे आई । यह स्वाभाविक ही है कि अनन्त की ठीक परिभाषा उन्हीं लोगों द्वारा विकसित हुई जो बड़ी संख्याओं का प्रयोग करते थे, या अपने दर्शनशास्त्र में ऐसी संख्याओं के अभ्यस्त थे । निम्नविवेचन से यह प्रकट हो जायगा कि भारतवर्ष में जैन दार्शनिक अनन्त से संबंधरखने वाली विविध भावनाओं को श्रेणीबद्ध करने तथा गणना संबंधी अनन्त की ठीक परिभाषा निकालने में सफल हुए।
बड़ी संख्याओं को व्यक्त करने के लिये उचित संकेतों का तथा अनन्त की कल्पना का विकास तभी होता है जब निगूढ तर्क और विचार एक विशेष उच्च श्रेणी पर पहुंच जाते हैं । यूरोप में आर्कमिडीज ने समुद्र-तट की रेत के कणों के प्रमाण के अंदाज लगाने का प्रयत्न किया था और यूनान के दार्शनिकों ने अनन्त एवं सीमा (लिमिट) के विषय में विचार किया था । किन्तु उनके पास बड़ी संख्याओं को व्यक्त करने के योग्य संकेत नहीं थे। भारतवर्ष में हिन्द, जैन और बौद्ध दार्शनिकों ने बहुत बड़ी संख्याओं का प्रयोग किया और उस कार्य के लिये उन्होंने उचित संकेतों का भी आविष्कार किया। विशेषत: जैनियों ने लोकभर के समस्त जीवों, काल-प्रदेशों और क्षेत्र अथवा आकाश-प्रदेशों आदि का प्रमाण का निरूपण करने का प्रयत्न किया है।
बड़ी संख्यायें व्यक्त करने के तीन प्रकार उपयोग में लाये गये -- १ धवला भाग ३, पृ. ६९ और १०० आदि.