________________
षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
३४३
असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक, ये तीन भाव पाये जाते हैं, क्योंकि, यहां पर दर्शनमोहनीय कर्म का उपशम, क्षय और क्षयोपशम, ये
होते हैं।
यहां एक बात ध्यान में रखने योग्य है कि चौथे गुणस्थान तक भावों का प्ररूपण दर्शनमोहनीय कर्म की अपेक्षा किया गया है । इसका कारण यह है कि गुणस्थानों का तारतम्य या विकाश-क्रम मोह और योग के आश्रित है । मोहकर्म के दो भेद हैं- एक दर्शनमोहनीय और दूसरा चारित्रमोहनीय । आत्मा के सम्यक्त्वगुण को घातनेवाला दर्शनमोहनीय है जिसके निमित्त से वस्तुस्वरूप का यथार्थ श्रद्धान करते हुए भी, सन्मार्ग को जानते हुए भी, जीव उस पर चल नहीं पाता है । मन, वचन और काय की चंचलता को योग कहते हैं । इसकेनिमित्त से आत्मा सदैव परिस्पन्दनयुक्त रहता है, और कर्माश्रवका कारण भी यही है । प्रारम्भ के चार गुणस्थान दर्शनमोहनीय कर्म के उदय, उपशम, क्षयोपशम आदि से उत्पन्न होते हैं, इसलिए उन गुणस्थानों में दर्शनमोह की अपेक्षा से (अन्य भावों के होते हुए भी) भावों का निरूपण किया गया है। तथापि चौथे गुणस्थान तक रहने वाला असंयमभाव चारित्रमोहनीय कर्म के उदय की अपेक्षा से, अत: उसे ओदयिक भाव ही जानना चाहिए। पांचवें से लेकर बारहवें तक आठ गुणस्थानों का आधार चारित्रमोहनीय कर्म है अर्थात् आठ गुणस्थान चारित्रमोहनीय कर्म के क्रमशः, क्षयोपशम, उपशम और क्षय से होते हैं, अर्थात् पांचवें, छठें और सातवें गुणस्थान में क्षायोपशमिकभावः, आठवें, नवें, दशवें और ग्यारहवें, इन चारों उपशामक गुणस्थानों में औपशमिकभाव, तथा क्षपकश्रेणीसम्बन्धी चारों गुणस्थानों में, तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में क्षायिकभाव कहा गया है । तेरहवें गुणस्थान में मोह का अभाव हो जाने से केवलयोग की ही प्रधान है और इसीलिए इस गुणस्थान का नाम संयोगिकेवली रखा गया है। चौदहवें गुणस्थान में योग के अभाव की प्रधानता है, अतएव अयोगिकेवली ऐसा नाम सार्थक है । इस प्रकार थोड़े में यह फलितार्थ जानना चाहिए कि विवक्षित गुणस्थान में संभव अन्य भाव पाये जाते हैं, किन्तु यहां भावप्ररूपणा में केवल उन्हीं भावों को बताया गया है, जो कि उन गुणस्थानों के मुख्य आधार हैं ।
आदेश की अपेक्षा भी इसी प्रकार से भावों का प्रतिपादन किया गया है, जो कि ग्रंथावलोकन से प्रस्तावना में दिये गये नक्शों के सिंहावलोकन से सहज में ही जाने जा सकते हैं।