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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
३०६ बहुवर्णनीय और सुगम है'। इस कथन का अर्थ संभवत: यह है कि जैन-साहित्य में अनन्त अर्थात् गणानानन्त की परिभाषा अधिक विशदरूप से भिन्न-भिन्न लेखकों द्वारा कर दी गई थी, तथा उसका प्रयोग और ज्ञान भी सुप्रचलित हो गया था। किन्तु धवला में अनन्त की परिभाषा नहीं दी गई । तो भी अनन्तसंबंधी प्रक्रियाएं संख्यात और असंख्यात नामक प्रमाणों के साथ-साथ बहुत बार उल्लिखित हुई हैं।
___ संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रमाणों का उपयोग जैन साहित्य में प्राचीनतम ज्ञातकाल से किया गया है । किन्तु प्रतीत होता है कि उनका अभिप्राय सदैव एकसा नहीं रहा । प्राचीनतर ग्रंथों में अनन्त सचमुच अनन्त के उसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ था जिस अर्थ में हम अब उसकी परिभाषा करते हैं। किन्तु पीछे के ग्रंथों में उसका स्थान अनन्तानन्तने ले लिया । उदाहरणार्थ - नेमिचंद्र द्वारा दशवीं शताब्दि में लिखित ग्रंथ त्रिलोक्सार के अनुसार परीतानन्त, युक्तानन्त एवं जघन्य अनन्तानन्त एक बड़ी भारी संख्या है, किन्तु हैं वह सान्त। उस ग्रंथ के अनुसार संख्याओं के तीन मुख्य भेद किये जा सकते हैं -
(१) संख्यात - जिसका संकेत हम स मान लेते हैं। (२) असंख्यात - जिसका संकेत हम अ मान लेते हैं। (३) अनन्त - जिसका संकेत हम न माल लेते हैं।
उपर्युक्त तीनों प्रकार के संख्या-प्रमाणों के पुन: तीन तीन प्रभेद किये गये हैं जो निम्न प्रकार हैं - (१) संख्यात- (गणनीय) संख्याओं के तीन भेद हैं -
(अ) जघन्य-संख्यात (अल्पतम संख्या) जिसका संकेत हम स ज मान लेते हैं। (ब) मध्यम-संख्यात (बीच की संख्य) जिसका संकेत हम स म मान लेते हैं।
(स) उत्कृष्ट-संख्यात (सबसे बड़ी संख्या) जिसका संकेत हम स उ मान लेते हैं। (२) असंख्यात (अगणनीय) के भी तीन भेद हैं -
(अ) परीत-असंख्यात (प्रथम श्रेणी का असंख्य) जिसका संकेत हम अप मान लेते
(ब) युक्त-असंख्यात (बीच का असंख्य) जिसका संकेत हम अ यु मान लेते हैं। (स) असंख्यातासंख्यात (असंख्य-असंख्य) जिसका संकेत हम अ अ मान लेते हैं।