________________
षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
२७७ कहा है, वह प्राप्त नहीं होता । यह बात स्पष्टत: दिखलाने के लिये उन्होंने अपने समय के गणितज्ञान की विविध और अश्रुतपूर्व प्रक्रियाओं द्वारा इस प्रकार के लोक के अधोभाग व उर्ध्वभाग का घनफल निकाला है जो कुल १६४३३२६ घनराजु होने से श्रेणी के घन अर्थात् ३४३ घनराजु से बहुत हीन रह जाता है । इसलिये उन्होंने लोक का आकार पूर्व-पश्चिम दो दिशाओं में तो ऊपर की ओर पूर्वोक्त क्रम से घटता बढ़ता हुआ, किन्तु उत्तर-दक्षिण दो दिशाओं में सर्वत्र सात राजु ही माना है । इस प्रकार यह लोक गोलाकार न होकर समचतुरस्राकार हो जाता है और दो दिशाओं से उसका आकार वेत्रासन, झल्लरी और मृदंग के सदृश भी दिखाई दे जाता है। ऐसे लोक का प्रमाण ठीकश्रेणी का घन ७ = ७x ७ x ७ : ३४३ घनराजु हो जाता है । यही लोक जीवादि पांचों द्रव्यों का क्षेत्र है।
यहाँ प्रश्न यह उपस्थित होता है कि उक्त ३४३ धनराजुप्रमाण केवल असंख्यात प्रदेशात्मक अत्यन्त परिमित क्षेत्र में अनन्त जीव व अनन्त पुद्गल परमाणु कैसे रह सकते हैं? इसका उत्तर यह है कि जीवों और पुद्गल-परमाणुओं में अप्रतिघात रूप से अन्योन्यावगाहन शक्ति विद्यमान है जिसके कारण अंगुल के असंख्यातवें भाग में भी अनन्तानन्त जीवों का
और जीव के भी प्रत्येक प्रदेश पर अनन्त औदारिकादि पुद्गल परमाणुओं का अस्तित्व बन जाता है।
ओघ अर्थात् गुणस्थानों की अपेक्षा जीवों का क्षेत्र ४ सूत्रों में बतला दिया गया है कि मिथ्यादृष्टी जीव सर्वलोक में व अयोगिकेवली और शेष सासादनसम्यग्दृष्टि आदि समस्त बारह गुणस्थानों में से प्रत्येक गुणस्थानवी जीव लोक के असंख्यातवें भाग में,
और सयोगिकेवली लोक के असंख्यातवें भाग में, असंख्यात बह भागों में, तथा सर्वलोक में रहते हैं। धवलाकार ने इन सूत्र-वचनों को एक ओर जीवों की नाना अवस्थाओं का विचार करके, और दसरी ओर सूक्ष्मतर क्षेत्रमान के लिये लोक को पांच विभागों में बांटकर बड़े विस्तार से समझाया है।
क्षेत्रावगाहनाकी अपेक्षा से जीवों की तीन अवस्थाएं हो सकती हैं (१) स्वस्थान (२) समुद्धात और (३) उपपाद । स्वस्थान भी दो प्रकार का है - अपने स्थायी निवास के क्षेत्र को स्वस्थान-स्वस्थान, और अपने विहार के क्षेत्र को विहारवत्स्वस्थान कहते हैं। जीवं के प्रदेशों का उनके स्वाभाविक संगठन से अधिक फैलना समुद्धात कहलाता है । वेदना और पीड़ा के कारण जीव-प्रदेशों के फैलने को वेदनासमुद्धात कहते हैं। क्रोधादि