________________
धवला का गणितशास्त्र
यह विदित हो चुका है कि भारतवर्ष में गणित-अंकगणित, बीजगणित, क्षेत्रमिति आदि का अध्ययन अति प्राचीन काल में किया जाता था। इस बात का भी अच्छी तरह पता चल गया है कि प्राचीन भारतवर्षीय गणितज्ञों ने गणितशास्त्र में ठोस और सारगर्भित उन्नति की थी। यथार्थत: अर्वाचीन अंकगणित और बीजगणित के जन्मदाता वे ही थे । हमें यह सोचने का अभ्यास हो गया है कि भारतवर्षकी विशाल जनसंख्या में से केवल हिंदुओं ने ही गणित का अध्ययन किया, और उन्हें ही इस विषय में रुचि थी, और भारतवर्षीय जनसंख्या के अन्य भागों, जैसे कि बौद्ध वा जैन गणितज्ञों द्वारा लिखे गये कोई गणिशास्त्र के ग्रन्थ ज्ञात नहीं हुए थे। किन्तु जैनियों के आगमग्रन्थों के अध्ययन से प्रकट होता है कि गणितशास्त्र का जैनियों में भी खूब आदर था । यथार्थत: गणित और ज्योतिष विद्या का ज्ञान जैन मुनियों की एक मुख्य साधना समझी जाती थी ।
अब हमें यह विदित हो चुका है कि जैनियों की गणितशास्त्र की एक शाखा दक्षिण भारत में थी और इस शाखा का कम से कम एक ग्रन्थ, महावीराचार्य-कृत गणितसारसंग्रह, उस समय की अन्य उपलब्धकृतियों की अपेक्षा अनेक बातों में श्रेष्ठ है। महावीराचार्य की रचना सन् ८५० की है। उनका यह ग्रन्थ सामान्य रूपरेखा में ब्रह्मगुप्त, श्रीधराचार्य, भास्कर और अन्य हिन्दू गणितज्ञों के ग्रन्थों के समान होते हुए भी विशेष बातों में उनसे पूर्णत: भिन्न है । उदाहरणार्थ - गणितसारसंग्रह के प्रश्न (Problems) प्राय: सभी दूसरे ग्रन्थों के प्रश्नों से भिन्न हैं।
वर्तमान काल में उपलब्ध गणित शास्त्रसंबंधी साहित्य के आधार पर से हम यह कह सकते हैं कि गणितशास्त्र की महत्वपूर्ण शाखाएं पाटलिपुत्र (पटना), उज्जैन, मैसूर, मलावार और संभवत: बनारस, तक्षशिला और कुछ अन्य स्थानों में उन्नतिशील थीं। जब तक आगे प्रमाण प्राप्त न हों, तब तक यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि इन शाखाओं में परस्पर क्या संबंध था। फिर भी हमें पता चलता है कि भिन्न-भिन्न शाखाओं
१ देखो-भगवती सूत्र, अमयदेव सूरिकी टीका सहित, म्हेसाणाकी आगमादेय समिति द्वारा प्रकाशित, १९१९, सूत्र ९० । जैकोबी कृत उत्तराध्यन सूत्र का अंग्रेजी अनुवाद, ऑक्सफोर्ड १९१५, अध्याय ७, ८, ३८.