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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
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विष्कंभसूची भी खुद्दाबंध में कथित विष्कंभसूची से कुछ न्यून, तथा अवहारकाल उससे अधिक कहा जाना आवश्यक है । यदि हम खुद्दाबंध में बतलाये गये सामान्य राशि की विष्कंभसूची को ही जीवट्ठाण में मिथ्यादृष्टिराशि की विष्कंभसूची मान लें तो उस समस्त सामान्य जीवराशि का मिथ्यादृष्टियों में ही समावेश होकर शेष गुणस्थानों के उक्त देवों व नारकियों में अभाव का प्रसंग आ जायगा । खुद्दाबंध और यहां जीवट्ठाण में विषकंभसूची और अवहारकाल को समान मान लेने में यही दोष उत्पन्न होता है ।
विषय - परिचय ( पु . ४)
जीवस्थान की पूर्व प्रकाशित दो प्ररूपणाओं - सत्प्ररूपणा और द्रव्यप्रमाणानुगम में क्रमश: जीव का स्वरूप, गुणस्थान व मार्गणास्थानानुसार भेद, तथा प्रत्येक गुणस्थान व मार्गणा स्थान संबंधी जीवों का प्रमाण व संख्या बतलाई जा चुकी है। अब प्रस्तुत भाग में जीवस्थानसंबंधी आगे की तीन प्ररूपणाएं प्रकाशित की जा रही हैं - क्षेत्रानुगम, स्पर्शनानुगम और कालानुगम ।
१. क्षेत्रानुगम
क्षेत्रानुगम में जीवों के निवास व विहारादि संबंधी क्षेत्र का परिमाण बतलाया गया है । इस संबंध में प्रथम प्रश्न यह उठता है कि यह क्षेत्र है कहां ? इसके उत्तर में अनन्त आकाश के दो विभाग किये गये हैं। एक लोकाकाश और दूसरा अलोकाकाश । लोकाकाश समस्त आकाश के मध्य में स्थित है, परिमित है और जीवादि पांच द्रव्यों का आधार है । उसके चारों तरफ शेष समस्त अनन्त आकाश अलोकाकाश है। उक्त लोकाकाश के स्वरूप और प्रमाण के संबंध में दो मत हैं। एक मत के अनुसार यह लोकाकाश अपने तलभाग में सातराजु व्यासवाला गोलाकार है । पुनः ऊपर को क्रम से घटता हुआ अपनी आधी उंचाई अर्थात् सात राजुपर एक राजु व्यासवाला रह जाता है। वहां से पुन: ऊपर को क्रम से बढ़ता हुआ साढ़े तीन राजु ऊपर जाकर पांच राजु व्यासप्रमाण हो जाता है और वहां पुन: साढ़े तीन राजु घटता हुआ अपने सर्वोपरि उच्च भाग पर एक राजु व्यासवाला रह जाता है। इस मत के अनुसार लोक का आकार ठीक अधोभाग में, वेत्रासन, मध्य में झल्लरी और ऊर्ध्वभाग
मृदंग के समान हो जाता है । किन्तु धवलाकार ने इस मत को स्वीकार नहीं किया है, क्योंकि, ऐसे लोक में जो प्रमाणलोक का घनफल जगश्रेणी अर्थात् सात राजु के घनप्रमाण