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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
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तिर्यचों के स्वस्थानस्वस्थानक्षेत्र का निकालते हुए द्वीप और समुद्रों का क्षेत्रफल अनेक कारणसूत्रों द्वारा पृथक् और सम्मिलित निकालने की प्रक्रियाएँ दी गई हैं, और साथ ही यह भी सिद्ध किया गया है कि इस मध्यलोक में कितना भाग समुद्र से रुका हुआ है । (देखो. पृ. १९४-२०३)
कायमार्गणा में बादर पृथिवी कायिक जीवों के स्पर्शन- क्षेत्र को बतलाते हुए रत्नप्रभादि सातों पृथिवियों की लम्बाई चौड़ाई का भी प्रमाण बतलाया गया है ।
३. कालानुगम
उक्त प्ररूपणाओं के समान कालप्ररूपणा में भी ओघ और आदेश की अपेक्षा काल का निर्णय किया गया है, अर्थात् यह बतलाया गया है कि यह जीव किस गुणस्थान या मार्गणास्थान में कम से कम कितने काल तक रहता है, और अधिक से अधिक कितने काल रहता है।
उदाहरणार्थ - मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यात्वगुणस्थान में कितने काल तक रहते हैं इस प्रश्न के उत्तर में बतलाया गया है कि नाना जीवों की अपेक्षा तो मिथ्यादृष्टि जीव सर्वकाल ही मिथ्यात्व गुण स्थान में रहते हैं, अर्थात् तीनों कालों में ऐसा एक भी समय नहीं है, जबकि मिथ्यादृष्टि जीव न पाये जाते हों । किन्तु, एक जीव की अपेक्षा मिथ्याकाल तीन प्रकार का होता है - अनादि-अनन्त, अनादि - सान्त और सादि - सान्त । जो अभव्य जीव है, अर्थात् त्रिकाल में भी जिनको सम्यक्त्व प्राप्ति नहीं होना है, ऐसे जीवों के मिथ्यात्व का काल अनादिद- अनन्त होता है, क्योंकि, उनके मिथ्यात्वका न कभी आदि है, न अन्त ।जो अनादिमिथ्यादृष्टि भव्य जीव है, उनके मिथ्यात्व का काल अनादि-स दे - सान्त है, अर्थात अनादि काल से आज तक सम्यक्त्व की प्राप्ति न होने से तो उनका मिथ्यात्व अनादि है, किन्तु आगे जाकर सम्यक्त्व की प्राप्ति और मिथ्यात्व का अन्त हो जाने से वह मिथ्यात्व सान्त है। धवलाकार ने इस प्रकार के जीवों में वर्द्धनकुमार दृष्टान्त दिया है, जो कि उस पर्याय में सर्वप्रथम सम्यक्त्व हुए थे । इस प्रकार सर्वप्रथम सम्यक्त्व को उत्पन्न करने वाले जीवों के सम्यक्त्वप्राप्ति के पूर्व समय तक उनके मिथ्यात्व का काल अनादि-सान्त समझना चाहिए। जिन जीवों ने एक बार सम्यक्त्व को प्राप्त कर लिया, तथापि परिणामों के संक्लेशादि निमित्त से जो फिर भी मिथ्यात्व का आदि और अन्त, ये दोनों पाये जाते हैं । इस प्रकार के 1 rai में भी श्रीकृष्ण का दृष्टान्त धवलाकार ने दिया है ।