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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
२७१ भेद से ही किया गया है, जैसा कि मूल के 'अथवा तीन योग' इस कथन से स्पष्ट है, और जिसका कि अभिप्राय वहीं पर विशेषार्थ में स्पष्ट कर दिया गया है (देखो पृ. ३३८) । इसी कारण प्राणों के खाने में ३ और २ प्राणों का उल्लेख नहीं किया गया है। पुस्तक २, पृ. ६४८
८. शंका - पृ. ६४८ पर काययोगी अप्रमत्तसंयत जीवों के आलाप में वेद लिखा है सो यहां भाववेद होना चाहिए ?
समाधान- इसका उत्तर शंका नं. ३ में दे दिया गया है। पुस्तक २, पृ. ६५४, ६६०
९. शंका - पृष्ठ ६५४ पर समाधान जो पहला किया है, उसमें लिखा है कि 'अपर्याप्त योग में वर्तमान कपाटसमुद्धातगत सयोगकेवली का पहले के शरीर के साथ सम्बन्ध नहीं रहता है । यही पृष्ठ ६६० पर समाधान करते हुए लिखा है । यह किस अपेक्षा से कहा है ? क्या समुद्धात में पूर्व मूल शरीर से सम्बन्ध छूट जाता है ?
(नानकचंदजी, खतौली, पत्र १०.११.४१) समाधान - 'अपर्याप्त योग में वर्तमान कपाटसमुद्धातगत सयोगकेवली का पहले के शरीर के साथ सम्बन्ध नहीं रहता' इसका अभिप्राय यह लेना चाहिये कि उक्त अवस्था में जो आत्मप्रदेश शरीर से बाहर फैल गये हैं, उनका शरीर के साथ सम्बन्ध नहीं रहता है। आत्मप्रदेशों के बाहर निकलने पर भी यदि शरीर के साथ सम्बन्ध माना जायगा, तो जिस परिमाण में जीव-प्रदेश फैले हैं, उतने परिमाणवाला ही औदारिकशरीर को होना पड़ेगा। किन्तु ऐसा होना सम्भव नहीं, अत: यह कहा गया है कि कपाटसमुद्धातगत सयोगकेवली का पहले के शरीर के साथ सम्बन्ध नहीं रहता । किन्तु जो आत्मप्रदेश उस समय शरीर के भीतर हैं, उनसे तो सम्बन्ध बना ही रहता है । इसी प्रकार किसी भी समुद्धात की दशा में पूर्व मूलशरीर से सम्बन्ध नहीं छर्टता है । समुद्धात के लक्षण में स्पष्ट ही कहा गया है । कि मूलशरीर को न छोड़कर जीव के प्रदेशों के बाहर निकलने को समुद्धात कहते हैं। पुस्तक २, पृ. ८०८
१०. शंका - पृ. ८०८ पंक्ति १२ में सात प्राण के आगे दो प्राण और होना चाहिए, क्योंकि, सयोगी के पर्याप्त अवस्था में दो प्राण होते हैं।
(रतनचंद जी मुख्तार, सहारनपुर, पत्र ३४-४-१)