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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
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उ के पश्चात् लुप्तवर्ण के स्थान में बहुधा व श्रुति पाई जाती है । जैसे- वालुवा - वालुकाः; बहुबं - बहुकं, बिहुव- विधूत, आदि । किन्तु 'पज्जव' में बिना उ के सामीप्य के भी नियम से व श्रुति पाई जाती है ।
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८. वर्ण विकार के कुछ विशेष उदाहरण इस प्रकार पाये जाते हैं - सूत्रों में अड्डाइज्ज-अर्धतृतीय (१६३), अणियोग - अनुयोग (५); आउ-अप् (३९) इड्डि-ऋद्धि (५९) ओधि, ओहि अवधि (११५,१३१); ओरालिय-औदारिक (५६); छदुमत्थ - छद्यस्थ (१३२); तेउ-तेजस (३९); पज्जव - पर्याय (११५); मोस - मृषा (४९); वेंतर - व्यन्तर (९६); णेरइयनारक, नारकी (२५); गाथाओं में - इक्खय - इक्ष्वाकु (५०); उराल-उदार (१६०); इंगालअंगार (१५१); खेत्तण्हू-क्षेत्रज्ञ (५२); चाग - त्याग (९२); फद्दय-स्पर्धक (१२१); सस्सेदिम. संस्वेदज (१३९) ।
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गाथाओं में आए हुए कुछ देशी शब्द इस प्रकार हैं- कायोली- वीवध (८८); घुम्मंत-भ्रमत् (६३); चोक्खो - शुद्ध (२०७); णिमेण - आधार (७); भेज्ज-भीरु; (२०१); मेरमात्रा, मर्यादा (९०) |
टीका के कुछ देशी शब्द - अल्लियड़ - उपसर्पति (२२०); चडविय-आरूढ़ (२२१); छड्डिय त्यक्त्वा (२२१); णिसुढिय - -नत (६८); वोलाविय - व्यतीत्य (६८) ।
इन थोड़ें से उदाहरणों पर से ही हम सूत्रों, गाथाओं व टीका की भाषा के विषय में कुछ निर्णय कर सकते हैं । यह भाषा मागधी या अर्धमागधी नहीं है, क्योंकि उसमें न तो अनिवार्य रूप से, और न विकल्प से ही र के स्थान पर ल क स के स्थान पर श पाया जाता, और न कर्त्ताकारक, एकवचन में कहीं ए मिलता ।
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त के स्थान पर द, क्रियाओं के एकवचन वर्तमान काल में दि व दे, पूर्वकालिक क्रियाओं के रूप में त्तु व दूण, अपादानकारक की विभक्ति दो तथा अधिकरणकारक की विभक्ति म्हि क के स्थान पर ग, तथा थ के स्थान पर ध आदेश, तथा द, और ध का लोपाभाव, ये सब शौरसेनी के लक्षण हैं। तथा त का लोप, क्रिया के रूपों में इ, पूर्व कालिक क्रिया के रूप में ऊण, ये महाराष्ट्री के लक्षण हैं । ये दोनों प्रकार के लक्षण सूत्रों, गाथाओं व टीका सभी में पाये जाते हैं। सूत्रों में जो वर्णविकार के विशेष उदाहरण पाये जाते हैं वे अर्धमागधी की ओर संकेत करते हैं। अतः कहा जा सकता है कि सूत्रों, गाथाओं व टीकाकी भाषा शोरसेनी प्राकृत है, उस पर अर्धमागधी का प्रभाव है, तथा उस पर महाराष्ट्री का भी