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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
भावसंग्रह, (४) मेधावीकृत धर्मसंग्रह श्रावकाचार (५) धर्मोपदेशपीयूषवर्षाकर श्रावकाचार, (६) इन्द्रनन्दिकृत नीतिसार और (७) आशाधरकृत सागरधर्मामृत ।
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इन सब ग्रंथों में केवल एक ही अर्थ का और प्राय: उन्हीं शब्दों में एक ही पद्य पाया जाता है जिसमें कहा गया है कि देशविरत श्रावक या गृहस्थ को वीरचर्या, सूर्यप्रतिमा, त्रिकालयोग और सिद्धान्तरहस्य के अध्ययन करने का अधिकार नहीं है ।
जिन सात ग्रंथों में से गृहस्थ को सिद्धान्त - अध्ययन का निषेध करने वाला पद्य उद्धृत किया गया है उनमें से नं. ५ और ६ को छोड़कर शेष पांच ग्रंथ इस समय हमारे सन्मुख उपस्थित हैं । वसुनन्दिकृत श्रावकाचार का समय निर्णीत नहीं है तो भी चूंकि आशाधर के ग्रंथों में उनके अवतरण पाये जाते हैं और उनके स्वयं ग्रंथों में अमितगति के अवतरण आये हैं, अत: वे इन दोनों के बीच अर्थात् विक्रम की १२हवीं १३हवीं शब्दादि में हुए होंगे। उनके ग्रंथ की कोई टीका भी उपलब्ध नहीं है, जिससे लेखक का ठीक अभिप्राय समझ में आ सकता। उनकी गाथा की प्रथम पंक्ति में कहा गया है कि दिन प्रतिमा, वीरचर्या और त्रिकालयोग इनमें (देशविरतों का) अधिकार नहीं है । दूसरी पंक्ति है 'सिंद्धतरहस्साण वि अज्झणं देसविरदाणं' । यथार्थतः इस पंक्ति की प्रथम पंक्ति के 'णत्थि अहियारो' से संगति नहीं बैठती, जब तक कि इसके पाठ में कुछ परिवर्तनादि न किया जाय । 'सिद्धंतरहस्साण' का अर्थ हिन्दी अनुवाद ने 'सिद्धान्त के रहस्य का पढ़ना' ऐसा किया है, जो आशाधर जी के किये गये अर्थ से भिन्न है । ग्रंथकार अभिप्राय समझने के लिये जब आगे पीछे के पन्न उलटते हैं तो सम्यक्त्व के लक्षण में देखते हैं -
अत्तागमतच्चाणं जं सद्दहणं सुणिम्मलं होदि ।
संकाइदोसरहियं तं सम्मत्तं मुणेयध्वं ॥ ६ ॥
अर्थात्, जब आप्त आगम और तत्वों में निर्मल श्रद्धा हो जाय और शंका आदिका कोई दोष नहीं रहें तब सम्यक्त्व हुआ समझना चाहिये | अब क्या सिद्धान्तग्रंथ आगम से
३ नास्ति त्रिकालयोगोऽस्य प्रतिमा चार्कसम्मुखा । रहस्यग्रंथसिद्धान्तश्रवणे नाधिकारिता ॥ ५४७ ॥ (वामदेव-भावसंग्रह)
४ कल्प्यन्ते वीरचर्याहः प्रतिमातापनादय: । न श्रावकस्य सिद्धान्तरहस्याध्ययनादिकम् ॥ ७४ ॥ ( मेधावी - धर्मसंग्रहश्रावकाचार )
५ त्रिकालयोगनियमों वीरचर्या च सर्वथा । सिद्धान्ताध्ययनं सूर्यप्रतिमा नास्ति तस्य वै ॥ (धर्मोपदेशपीयूषवर्षाकार-श्रावकाचार )