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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
२६६ निरवशेष प्रमेयांश का समुद्धार करने वाले गोम्मटसार को सिद्धान्त मानने में उन्हें ऐतराज है। षट्खंडागम भी तो महाकर्म प्रकृतिपाहुड का संक्षिप्त समुद्धार है । फिर यह कैसे सिद्धान्त बना रहता है, और गोम्मटसार कैसे सिद्धान्त-बाह्य: हो जाता है; यह युक्ति समझ में नहीं आती। यदि किसी के किन्हीं ग्रन्थों को सिद्धान्त कहने से ही अन्य दसरे ग्रंथ असिद्धान्त हो जाते हों, तो गोम्मटसारादि ग्रंथों के भी सिद्धान्तरूप से उल्लिखित किये जाने के प्रमाण दिये जा सकते हैं। उदाहरणार्थ, राजमल्लकृत लाटीसंहिता नामक श्रावकाचार ग्रंथ में उल्लेख
तदुक्तं गोम्मटसारे सिद्धान्ते सिद्धसाधने। तत्सूत्रं च यथाम्नायात् प्रतीत्यै वच्मि साम्प्रतम् ॥ ५, १३४.
इस प्रकार के उल्लेखों से क्या गोम्मटसार सिद्धान्त ग्रंथ सिद्ध नहीं होता ? और क्या उसके सिद्धान्त ग्रंथ सिद्ध हो जाने से शेष ग्रंथ सिद्धान्तबाह्य सिद्ध हो जाते हैं ?
यदि विचार पूर्वक देखा जाय तो समस्त जैनधर्म और सिद्धान्त का ध्येय जिनोक्त वाक्यों को सर्वव्यापी बनाने का रहा है । स्वयं तीर्थंकर के समवसरण में मनुष्यमात्र ही नहीं, पशु-पक्षी आदि तक सम्मिलित होते थे, जो सभी भगवान् के उपदेश को सुन समझ सकते थे । जब द्वादशांग वाणी की आधारभूत दिव्यध्वनि तक को सुनने का अधिकार समस्त प्राणियों का है, तब उस वाणी के सारांश को ग्रथित करने वाले कोई भी सिद्धान्त ग्रंथ श्रावकों के लिये क्यों निषिद्ध किये जायेंगे, यह समझ में नहीं आता । सम्यग्दर्शन को निर्मल बनाने के लिये सिद्धान्त का आश्रय अत्यंत वांछनीय है । समस्त शंकाओं का निवारण होकर नि:शंकित - अंग की उपलब्धि का सिद्धान्तध्ययन से बढ़कर दूसरा उपाय नहीं । जिन सैद्धान्तिक बातों के तर्क वितर्क में विद्वानों का और जिज्ञासुओं का न जाने कितना बहुमूल्य समय व्यय हुआ करता है और फिर भी वे ठीक निर्णय पर नहीं पहुंच पाते, ऐसी अनेक गुत्थियां इन सिद्धान्त ग्रंथों में सुलझी हुई पड़ी हैं। उनसे अपने ज्ञान को निर्मल और विकसित बनाने का सीधा मार्ग गृहस्थ जिज्ञासुओं और विद्यार्थियों को क्यों न बताया जाय ? स्वयं धवलसिद्धान्त में कहीं भी ऐसा नियंत्रण नहीं लगाया गया कि ये ग्रंथ मुनियों को ही पढ़ना चाहिये, गृहस्थों को नहीं । बल्कि, जैसा हम ऊपर देख चुके हैं, जगह जगह हमें आचार्य का यही संकेत मिलता है कि उन्होंने मनुष्य मात्र का ख्याल रखकर व्यख्यान किया है । उन्होंने जगह-जगह कहा है कि 'जिन भगवान् सर्वसत्त्वोपकारी होते हैं, और इसलिये सबकी समझदारी के लिये अमुक बात अमुक रीति से कही गई है। यदि सिद्धान्तों