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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
२५९ अर्थात्, इन तीन सूत्रों में पर्यायार्थिकनय से क्यों उपदेश दिया गया है ? इसका उत्तर है कि जिससे अधिक जीवों का अनुग्रह हो सकें । संक्षेपरुचिवाले जीवों से विस्ताररुचिवाले जीव बहुत पाये जाते हैं । पृ.२४६ पर पाया जाता है -
__ उत्तमेव किमिदि पुणो वि उच्चदे फलाभाव ? ण, मंदबुद्विभवियजणसंभालणदुवारेण फलोवलंभादो।
अर्थात्, एक बार कही हुई बात यहां पुन: क्यों दुहराई जा रही है, इसका तो कोई फल नहीं है ? इसका उत्तर आचार्य देते हैं - नहीं, मंदबुद्धि भव्यजनों के संभाल द्वारा उसका फल पाया जाता है।
ये थोड़े से अवतरण धवलसिद्धान्त के प्रकाशित अंशों में से दिये गये हैं। समस्त धवल और जय धवलों में से दो चार नहीं, सैकड़ौं अवतरण इस प्रकार के दिये जा सकते हैं जहां स्वयं धवला के रचयिता वीरसेनस्वामी ने यह स्पष्टत: बिना किसी भ्रान्ति के प्रकट किया है कि यह सूत्र-रचना और उनकी टीका प्राणिमात्र के उपयोग के लिये, समस्त भव्यजनों के हित के लिये, मन्द से मन्द बुद्धि वाले और महामेधावी शिष्यों के समाधान के लिये हुई है, और उनमें जो पुनरुक्ति व विस्तार पाया जाता है वह इसी उद्वार ध्येय की पूर्ति के लिये है । स्वयं धवलाकार के ऐसे सुस्पष्ट आदेश के प्रकाश में इन्द्रनन्दि आदि लेखकों का आर्थिकाओं, गृहस्थों और अल्पमेधावी शिष्यों को सिद्धान्त पुस्तकों के न पढ़ने का आदेश आर्ष या आगमोक्त है, या अन्यथा, यह पाठक स्वयं विचार कर देख सकते हैं।
अब हमारे सन्मुख रह जाता है पंडितप्रवरआशाधर जी का वाक्य, जो विक्रमकी १३हवीं शताब्दिका का है। उनका यह निषेधात्मक श्लोक सागरधर्मामृत के सप्तम अध्याय का ५०वां पद्य है। इसके पूर्व के ४९ वें श्लोक में ऐलक की स्वपाणिपात्रादि क्रियाओं का विधानात्मक उल्लेख है। तथा आगे के ५१वें श्लोक में श्रावकों को दान, शील, उपवासादिक विधानात्मक उपदेश दिया गया है। इन दोनों के बीच केवल वही एक श्लोक निषेधात्मक दिया गया है। सौभाग्य से आशाधर जी ने अपने श्लोकों पर स्वयं टीका भी लिख दी है जिससे उनका श्लोकगत अभिप्राय खूब सुस्पष्ट हो जाय । उन्होंने अपने -
'स्यान्नधिकारी सिद्धान्तरहस्याध्ययनेऽपि च' का अर्थ किया है 'सिद्धान्तस्य परमागमस्य सूत्र रूपस्य रहस्यस्य च प्रायश्चित्तशास्त्रस्य अध्ययने पाठे श्रावको नाधिकारी स्यादिति संबंध:।
अर्थात्, सूत्ररूप परमागम के अध्ययन का अधिकार श्रावक को नहीं है । अब