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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका तब्विवरीदमणिका चिदं।
वह उदय अथवा उदीरणा में ही दिया जा सकता है उसे निकाचित कहते हैं ।
अनिकाचित इससे विपरीत होता है। २२. कम्मट्ठिदि - कम्मट्ठिदि त्ति अणियोगद्दारं २२. कर्मस्थिति - कर्मस्थिति अनुयोगद्वार
सव्वकम्माणं सत्तिकम्मट्टिदि- संपूर्ण कर्मों की शक्तिरूप कर्मस्थिति का मुक्कड्डणोकड्डणजणिहिदिंच परूवेदि। और उत्कर्षण तथा अपकर्षण से उत्पन्न
हुई कर्मस्थिति का वर्णन करता है। २३. पच्छिमक्खंध - पच्छिमक्खंधेति २३. पश्चिमस्कन्ध - पश्चिमस्कन्ध
अणिओ गद्दारं दंड-कपाट-पदर- अर्थाधिकार दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरणाणि तत्थ हिदि- लोकपूरणरूप समुद्धातका, इस समुद्धात अणुभागखंड यघादणविहाणं जोग में होने वाले स्थितिकांडकघात और किट्टीओ काऊण जोगणिरोहसरूवं कम्म- अनुभागकाण्डक घात के विधानका, योगों क्खवणविहाणं च परूवेदि।
की कृष्टि करके होने वाले योगनिरोध के स्वरूप का और कर्मक्षपण के विधान का वर्णन करता है।
२४. अप्पाबहुग - अप्पाबहुगणिओगद्दारं २४. अल्पबहुत्व - अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार
अदीदसव्वाणिओगद्दारेसु अपपाबहुगं अतीत संपूर्ण अनुयोगद्वारों में परूवेदि।
अल्पबहुत्वका प्रतिपादन करता है।
इन चौबीस अधिकारों के विषय का प्रतिपादन पुष्पदन्त और भूतबलिने कुछ अपने स्वतंत्र विभाग से किया है जिसके कारण उनकी कृति षट्खंागम कहलाती है । उक्त चौबीस अधिकारों में पांचवा बंधन विषय की दृष्टि से सबसे अधिक महत्वपूर्ण प्रतीत होता है। इसी के कुछ अवान्तर अधिकारों को लेकर प्रथम तीन खंडों अर्थात् जीवट्ठाण, खुद्दाबंध और बंधसामित्तविचय की रचना हुई है । इन तीन खंडों में समानता यह है कि उनमें जीव का बंधक की प्रधानता से प्रतिपादन किया गया है । उनका मंगलाचरण भी एक है । इन्हीं तीन खंडों पर कुन्दकुन्द द्वारा परिकर्म नामक टीका लिखी कही गयी है । इन्हीं तीन खंडों के