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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
२३९ छठवें से चौदहवें गुणस्थानतक के मनुष्यों की संख्या वही है जो ऊपर गुणस्थान प्रमाण-प्ररूपण में दिखा आये हैं, क्योंकि, ये गुणस्थान केवल मनुष्यों के ही होते हैं, देववादिकों के नहीं। अत: जिनका प्रमाण संख्यात है, ऐसे द्वितीय गुणस्थान से चौदहवें गुणस्थान तक के कुल मनुष्यों का प्रमाण ५२ +१०४+ ७००+ १३ + तीन कम ९ करोड़, अर्थात् कुल तीन कम आठ सौ अठहत्तर करोड़ होता है । आज की संसार भर की मनुष्यगणना से यही प्रमाण चौगुने से भी अधिक हो जाता है । मिथ्यादृष्टियों को मिलाकर तो उसकी अधिकता बहुत ही बढ़ जाती है ।जैन सिद्धान्तानुसार यह गणना ढाई द्वीपवर्ती विदेह आदि समस्त क्षेत्रों की है जिसमें पर्याप्तकों के अतिरिक्त निवृत्यपर्याप्तक और लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य भी सम्मिलित
नाना क्षेत्रों में मनुष्य गणना का अल्पबहुत्व इस प्रकार बतलाया गया है - अन्तद्वीपों के मनुष्य सबसे थोड़े हैं । उनसे संख्यातगुणे उत्तरकुरु और देवकुरु के मनुष्य हैं । इसी प्रकार हरि और रम्यक, हैमवत और हैरण्यवत, भरत और ऐरावत, तथा विदेह इन क्षेत्रों का मनुष्यप्रमाण पूर्व पूर्व से क्रमशः संख्यातगुणा है ।
एक बात और उल्लेखनीय है कि वर्तमान हुंडावसर्पिणी में पद्यप्रभ तीर्थकरका ही शिष्य-परिवार सबसे अधिक हुआ, जिसकी संख्या तीन लाख तीस हजार ३,३०,००० थी।
उपर्युक्त चौदह गुणस्थानों और मार्गणा-स्थानों में जीवद्रव्य के प्रमाण का ज्ञान भगवान् भूतबलि आचार्य ने १९२ सूत्रों में कराया है, जिनका विषयक्रम इस प्रकार है -
प्रथम सूत्र में द्रव्यप्रमाणानुगम के ओघ और आदेश द्वारा निर्देश करने की सूचना देकर दूसरे, तीसरे, चौथे और पांचवे सूत्रों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान के जीवों का प्रमाण क्रमश: द्रव्य, काल, क्षेत्र और भाव की अपेक्षा बतलाया है । छठवें सूत्र में द्वितीय से पांचवें गुणस्थान तक के जीवों का तथा आगे के सातवें और आठवें सूत्र में क्रमश: छठे और सातवें गुणस्थानों का द्रव्य-प्रमाण बतलाया है । उसी प्रकार ९ वें और १० वें सूत्र में उपशामक तथा ११ वें व १२ वें में क्षपकों और अयोग-केवली जीवों का तथा १३ वें व १४ वें सूत्र में सयोगकेवलियों का प्रवेश और संचय-काल की अपेक्षा से प्रमाण कहा गया है। सूत्र नं. १५ से मार्गणास्थानों में प्रमाण का निर्देश प्रारंभ होता है. जिसके प्ररूपण की सत्रसंख्या निम्न प्रकार है -