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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
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गुणस्थानों व मार्गणास्थान के अनेक भेद-प्रभेदों का विशिष्ट जीवों की अपेक्षा से सामान्य, पर्याप्त रूप प्ररूपण करने से आलापों की संख्या कई सौ पर पहुंच जाती है । इस आलाप विभाग का परिचय विषय सूची को देखने से मिल सकता है। अत: उस सम्बंध में यहां विशेष कथन की आवश्यकता नहीं है । प्रथम भाग की भूमिका में गुणस्थानों और मार्गणाओं का सामान्य परिचय देकर यह सूचित किया गया था कि अगले खंड में विषय का विशेष विवेचन किया जायेगा । किन्तु इस भाग का कलेवर अपेक्षा से अधिक बढ़ गया है और प्रस्तावना भी अन्य उपयोगी विषयों की चर्चा से यथेष्ट विस्तृत हो चुकी है। अत: हम उक्त विषय के विशेष विवेचन करने की आकांक्षा का अभी फिर भी नियंत्रण करते हैं ।
रचना और भाषा शैली
प्रस्तुत ग्रंथविभाग में सूत्र नहीं हैं । सत्प्ररूपणा का जो विशय ओघ और आदेश अर्थात् गुणस्थान और मार्गणास्थानों द्वारा प्रथम १७७ सूत्रों मेंप्रतिपादित हो चुका है उसी का यहां बीस प्ररूपणाओं द्वारा निर्देश किया गया है ।
इस बीस प्रकार की प्ररूपणा के आदि में टीकाकार ने 'ओघेण अत्थि मिच्छाइट्ठी सिद्धा चेदि' इस प्रकार से सूत्र दिया है और उसे ओघसूत्र कहा है । हमारी अ. प्रति में इस पर ७४, आ. में १७४, तथा स. में १७५ की संख्या पायी जाती है जो उन प्रतियों की पूर्व सूत्रगणना के क्रम से है । पर स्पष्टत: वह सूत्र पृथक् नहीं हैं, धवलाकार ने पूर्वोक्त ९ से २३ तक के ओघ सूत्रों का प्रकृत विषय की वहां से उत्पत्ति बतलाने के लिये समष्टि रूप से उल्लेख मात्र किया है ।
इभाग में गाथाएं भी बहुत थोड़ी पायी जाती हैं, जिसका कारण यहां प्रतिपादित विषय की विशेषता है । अवतरण गाथाओं की संख्या यहां केवल १३ है जिनमें से एक (नं. २२०) कुंदकुंद के बोधपाहुड में और दो (२२३, २२४ ) प्राकृत पंचसंग्रह ' में भी पायी जाती है | गाथा नं. (२२८) 'उत्तं च पिंडियाए' ऐसा कहकर उद्धृत की गई है । हमने इस
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१ यह ग्रंथ अभी अभी 'वीरसेवा मन्दिर सरसावा' द्वारा प्रकाश में लाया जा रहा है। उसमें उक्त गाथाओं के होने की सूचना हमें वहां के पं. परमानन्द जी शास्त्री द्वारा मिली ।