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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
१९० किसी में दो अक्षर लिखकर आदि भिन्न रूप से संक्षेप बनाये गये हैं और किसी प्रति में वे पूरे रूप में भी लिखे हैं । इस प्रकार बिन्दु रहित संक्षिप्त कारंजा की प्रति में सबसे अधिक और आरा की प्रति में सबसे कम हैं । इस अव्यवस्था को देखते हुए आदर्श प्रति में बिन्दु हैं या नहीं, इस विषय में शंका हो जाने के कारण हमने इन संक्षिप्त रूपों का उपयोग न करके पूरे शब्द लिखना ही उचित समझा।
प्रत्येक आलाप में बीस बीस प्ररूपणाएं हैं। पर कहीं कहीं प्रतियों में एक शब्द से लगाकर पूरे आलाप तक भी छूटे हुए पाये जाते हैं। इनकी पूर्ति एक दूसरी प्रतियों से हो गर्ह है, किन्तु कहीं-कहीं उपलब्ध सभी प्रतियों में पाठ छूटे हुए हैं जैसा कि पाठ-टिप्पण व प्रति-मिलान और छूटे हुए पाठों की तालिका से ज्ञात हो सकेगा। इन पाठों की पूर्ति विषय को देख समझकर कर्ता की शैली में ही उन्हीं के अन्यत्र आये हुए शब्दों द्वारा कर दी गई है। जहां ऐसे जोड़े हुए पाठ एक दो शब्दों से अधिक बड़े हैं वहां वे कोष्ठक के भीतर रख दिये गये हैं।
मूल में जहां कोई विवाद नहीं है वहां प्ररूपणाओं की प्रत्येक स्थान में संख्या मात्र दी गई है । अनुवाद में सर्वत्र उन प्ररूपणाओं की स्पष्ट सूचना कर देने का प्रयत्न किया गया है और मूल का सावधानी से अनुसरण करते हुए भी वाक्य रचना यथाशक्ति मुहावरे के अनुसार और सरल रखी गई है।
मूल में जो आलाप आये है उनको और भी स्पष्ट करने तथा दृष्टिपात मात्र से ज्ञेय बनाने के लिये प्रत्येक आलाप का नक्शा भी बनाकर उसी पृष्ठ पर नीचे दे दिया गया है। इनमें संख्याएं अंकित करने में सावधानी तो पूरी रखी गई है, फिर भी संभव है दृष्टिदोष से दो चार जगह एकाध अंक अशुद्ध छप गया हो । पर मूल और अनुवाद साम्हने होने से उनके कारण पाठकों को कोई भ्रम न हो सकेगा । नक्शों का मिलान गोम्मटसार के प्रस्तुत प्रकरण से भी कर लिया गया है।