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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
२२१ (४) इससे ऊपर के सूत्र में मनुष्यनियों को मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में जो पर्याप्त और अपर्याप्त बतलाकर इसी सूत्र में जो शेष गुणस्थानों में केवल पर्याप्त ही बतलाया है, इससे भी भाववेद की ही मुख्यता प्रतीत होती है, क्योंकि गुणस्थानों में पर्याप्तत्व और अपर्याप्तत्व की व्यवस्था भाववेद की अपेक्षा से ही की गई है।
(५) यदि यहां उक्त पादटिप्पण को ग्रहण न किया जावे तो धवलाकार ने इसी सूत्र की व्याख्या में जो यह शंका उठाई है कि 'अस्मादेवार्षाद् द्रव्यस्त्रीणां निर्वृति: सिद्धयेत्' अर्थात्, तो इसी आगम से द्रव्यस्त्रियों का मुक्ति जाना भी सिद्ध हो जायगा, ऐसी शंका के उत्पन्न होने का कोई कारण नहीं रह जाता है।
इन उपर्युक्त हेतुओं से यही प्रतीत होता है कि यहां मनुष्यनियों का भाववेद की अपेक्षा ही प्रतिपादन किया गया है, द्रव्यवेद की अपेक्षा से नहीं। और इसीलिये उक्त ९३ सूत्र पर 'अत्र 'संजद' इति पाठशेष: प्रतिभाति' यह पादटिप्पण जोड़ा गया है।
२१. शंका - ९३ सूत्र के नीचे जो शंका दी है कि हुण्डावसर्पिणी कालसम्बन्धी स्त्रियों में सम्यग्दृष्टि जीव क्यों नहीं उत्पन्न होते हैं ? उसका समाधान करते हुए लिखा है कि 'नहीं; क्योंकि, उनमें सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न होते हैं'। सो इसका खुलासा क्या है ? क्या सम्यग्दृष्टि जीव स्त्रियों में उत्पन्न हो सकता है ? (नानकचंदजी, १.४.४०)
स्त्रियों को अपर्याप्तदशा में सम्यकत्व नहीं होता है, ऐसा गोम्मटसार आदि ग्रंथों का कथन है । तदनुसार धवला के द्वितीय खंड में पृ. ४३० पर भी लिखा है 'इत्थिवेदेण विणा ....... अपर्याप्त दशा में स्त्रीवेदी को सम्यक्त्व नहीं। किन्तु धवला के प्रथम खंड में पृ. ३३२ पर इसके विरुद्ध लिखा है - हुण्डावसर्पिण्यां स्त्रीपु सम्यग्दृष्टय: किन्नोत्पद्यन्त इति चेन्न, उत्पद्यन्ते । तत्कुतोऽवसीयते ? अस्मा देवाषीत् । ऐसा विरोधी कथन क्यों है ?
(पं. अजितकुमार जी शास्त्री, पत्र २२.१०.४०) समाधान - अन्य गति से आकर सम्यग्दृष्टि जीवन स्त्रियों में उत्पन्न नहीं होता है, यह तो सुनिश्चित है । इसलिए उक्त शंका-समाधान का अर्थ इस प्रकार लेना चाहिए -
शंका - हुंडावसर्पिणीकाल में स्त्रियों में सम्यग्दृष्टि क्यों नहीं होते हैं ? समाधान - नहीं; क्योंकि, उनमें सम्यग्दृष्टि जीव होते हैं।
यहां 'उत्पद्यन्ते' क्रिया का अर्थ होना' लेना चाहिए। इससे स्पष्ट हो जाता है कि हुंडावसर्पिणीकाल के दोष से स्त्रियां सम्यग्दृष्टि न होवें, ऐसा शंकाकार के पूछने का अभिप्राय है । अथवा, इस शंका-समाधान का निम्न प्रकार से दूसरा भी अभिप्राय कदाचित् संभव हो सकता है -