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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
८.म.भो. भू. बा
८ ज. भो. भू. बा.
८ क. भू. बालाग्र ८ लिक्षा
= जघन्य भो. भू. बालाग्र
कर्मभूमि बाला
लिक्षा
=
=
२००० दंड
४ कोश
=
3
=
=
जूं
अंगुल के आगे के प्रमाण भी आत्म, उत्सेध व प्रमाण अंगुल के अनुसार तीनतीन प्रकार के होते हैं। एक प्रमाण योजन अर्थात् दो हजार कोश लम्बे चौड़े और गहरे कुंड के आश्रय से अद्धापल्य नामक प्रमाण निकालने का प्रकार ऊपर कालप्रमाण में बता आये हैं। उसी अद्धापल्य के अर्धच्छेद ' प्रमाण अद्धापल्यों का परस्पर गुण करने पर सूच्यंगुल का प्रमाण आता है। सूच्यंगुल के वर्ग को प्रतरांगुल और घनको घनांगुल कहते हैं । अद्धापल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण, अथवा मतान्तर से अद्वापल्य के जितने अर्धच्छेद हों उसके असंख्यातवें भागप्रमाण, धनांगुलों के परस्पर गुणा करने पर जगश्रेणी का प्रमाण आता है। श्रेणी के सात में भाग प्रमाण रज्जु होताहै, जो तिर्यक् लोक के मध्य विस्तार प्रमाण है । श्रेणी के वर्ग को जगप्रतर तथा जगश्रेणी के धन को लोक कहते हैं ।
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मुसल यानाली
कोस
योजन
ये सब अर्थात् पल्य, सागर, सूच्यंगुल प्रतरांगुल, धनांगुल, जगश्रेणी, जगप्रतर और लोक उपमा मान हैं, जिनका उपयोग यथावसर द्रव्य, क्षेत्र और काल, इन तीनों अपेक्षाओं. से बतलाये गये प्रमाणों में किया गया है। उनका तात्पर्य द्रव्यप्रमाण में उतनी संख्या से, कालप्रमाण में उतने समयों से तथा क्षेत्रप्रमाण में उतने ही आकाशप्रदेशों से समझना चाहिये।
४. भावप्रमाण - पूर्वोक्त तीनों प्रकार के प्रमाणों के ज्ञान को ही भावप्रमाण कहा है। (देखो सूत्र ५) । इसका अभिप्राय यह है कि जहां जिस गुणस्थान व मार्गणास्थानका द्रव्य, काल व क्षेत्र की अपेक्षा से प्रमाण बतलाया गया है वहां उस प्रमाण के ज्ञान को ही भावप्रमाण समझ लेना चाहिये ।
जीवराशि का गुणस्थानों की अपेक्षा प्रमाण- प्ररूपण
सर्व जीवराशि अनन्तानन्त है । उसका बहुभाग मिथ्यादृष्टिगुणस्थानवर्ती है, तथा शेष एक भाग अन्य तेरह गुणस्थानों और सिद्धों में विभाजित है । इनमें भी मिथ्यादृष्टि और सिद्ध क्रम हानि रूप से अनन्तानन्त हैं । सासादनादि चार गुणस्थानों के जीव प्रत्येक राशि
१ एक राशि जितनी बार उत्तरोत्तर आधी आधी की जा सके, उतने उस राशि के अर्धच्छेद कहे जाते
हैं।