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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
२०८ आगे चलकर पृष्ठ ६० पर कर्त्ता दो प्रकार का बतलाया गया है, एक अर्थकर्ता व दूसरा ग्रंथकर्ता । और फिर विस्तार के साथ तीर्थकर भगवान् महावीर को श्रुत का अर्थकर्ता, गौतम गणधर को द्रव्यश्श्रुत का ग्रंथकर्ता तथा भूतबलि-पुष्पदन्त को भी खंडसिद्धान्त की अपेक्षा से कहूं या उपतंत्रकर्ता कहा है । यथा -
तत्थ कत्ता दुविहो, अत्थकत्ता गंथकता चेदि । महावीरोऽर्थकर्ता । .... एवंविधो महावीरोऽर्थकर्ता । .... तदो भावसुदस्स अत्थपदाणं च तित्थयरो कत्ता । तित्थयरादो सुदपज्जाएण गोदमो परिणदो त्ति दव्वसुदस्स गोदमो कत्ता । तत्तो गंथरयणा जादेत्ति । .... तदो एयं खंडसिद्धंतं पडुच्च भूदबलि-पुष्फयंताइरिया वि कत्तारो उच्चंति। तदो मूलतंतकत्ता बड्ढमाणभडारओ, अणुतंतकत्ता गोदमसामी, उवतंतकत्तारा भूदबलि-पुप्पंयंतादयो वीयरायदोसमोहा मुणिवरा । किमर्थ कर्ता प्ररूप्यते.? शास्त्रस्य प्रामाण्यप्रदर्शनार्थम्, 'वक्तृप्रामाण्याद् वचनप्रामाण्यम्' इति न्यायात् । (षट्खंडागम भाग १, पृष्ठ ६०-७२)
उसी प्रकार, स्वयं धवल ग्रंथ आगम है, तथापि अर्थ की दृष्टि से अत्यन्त प्राचीन होने पर भी उपलभ्य शब्द रचना की दृष्टि से उसके कर्ता वीरसेनाचार्य ही माने जाते हैं। इससे स्पष्ट है कि णमोकारमंत्र को द्रव्यार्थिक नयसे पुष्पदन्ताचार्य से भी प्राचीन मानने व पर्यायार्थिक नयसे उपलब्ध भाषा व शब्द रचना के रूप में पुष्पदन्ताचार्यकृत मानने से कोई विरोध उत्पन्न नहीं होता । वर्तमान प्राकृत भाषात्मक रूप में तो उसे सादि ही मानना पड़ेगा। आज हम हिन्दी भाषा में उसी मंत्र को 'अरिहंतो को नमस्कार ' या अंग्रेजी में "Bow to the worshipful' आदि रूप में भी उच्चारण करते हैं, किंतु मंत्र का यह रूप अनादि क्या, बहुत पुराना भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि, हम जानते हैं कि स्वयं प्रचलित हिन्दी या अंग्रेजी भाषा ही कोई हजार आठ सौ वर्ष पुरानी नहीं है । हाँ, इस बात की खोज अवश्य करना चाहिये कि क्या यह मंत्र उक्त रूप में ही पुष्पदन्ताचार्य के समय से पूर्व की किसी रचना में पाया जाता है ? यदि हां, तो फिर विचारणीय यह होगा कि धवलाकार के तत्संबंधी कथनों का क्याअभिप्राय है। किन्तु जब तक ऐसे कोई प्रमाण उपलब्ध न हों तब तक अब हमें इस परम पावन मंत्र के रचयिता पुष्पदन्ताचार्य को ही मानना चाहिये ।
शंका-समाधान षट्खंडागम प्रथम भाग के प्रकाशित होने पर अनेक विद्वानों ने अपने विशेष पत्र द्वारा अथवा पत्रों में प्रकाशित समालोचनाओं द्वारा कुछ पाठ सम्बंधी व सैद्धान्तिक शंकाएं