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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
२११ __समाधान - ‘णामं ठवणा दवियं' इत्यादि गाथा उद्धृत करके जो सन्मति सूत्र का उल्लेख किया है वह सन्मतितर्क नाम का प्राप्त ग्रन्थ ही प्रतीत होता है, क्योंकि यह गाथा तथा उससे पूर्व उद्धृत चार गाथाएं वहां पाई जाती हैं । सन्मति तर्क के कर्ता सिद्धसेन का स्मरण महापुराण आदि अनेक दिगम्बर ग्रन्थों में भी पायाजाता है, जिससे अनुमान होता है कि ये आचार्य दोनों सम्प्रदायों में मान्य रहे हैं। इससे अन्य कोई ग्रन्थ इस नाम का जैन साहित्य में उपलब्ध भी नहीं है।
पृष्ठ १९
८. शंका- 'वच्चस्थणिरवेक्खो मंगलसद्दो णाममंगलं' इत्यत्र तस्य मंगलस्याधारविषयेप्न्वइष्ट - विधेध्वजीवाधारकथने भाषायां जिनप्रतिमाया उदाहरणं प्रदत्तं, तत्कथं संगच्छते ? ..... अजीवोदाहरणे जिनभवनमुदाहियतामिति ।
___ (पं. झम्मनलाल जी तर्कतीर्थ, पत्र ता. ४.१.४१) अर्थात् नाममंगल के आठ प्रकार के आधार-कथन में भाषानुवाद में अजीव आधार का उदाहरण जिनप्रतिमा दिया गया है, सो कैसे संगत है ? जिन भवन का उदाहरण अधिक ठीक था?
समाधान - धवलाकार ने नाममंगल का जो लक्षण दिया है और उसके जो आधार बतलाये हैं, उनसे तो यही ज्ञात होताहै कि एक या अनेक चेतन या अचेतन मंगल द्रव्य नाममंगल के आधार होते हैं। उदाहरणार्थ, यदि हम पार्श्वनाथ तीर्थकर का नामोच्चारण करें तो यह एक जीवाश्रित नाममंगल होगा । यदि हम चौबीस तीर्थकरों का नामोच्चारण करें तो यह अनेक जीवाश्रित नाममंगल होगा |यदि हम अन्तरीक्ष पार्श्वनाथ, या केशरियानाथ आदि प्रतिमाओं का नामोच्चारण करें तो यह अजीवाश्रित नाममंगल होगा, इत्यादि । इस प्रकार जिन प्रतिमा नाममंगल का आधार बन जाती है, जिसका कि उसी पृष्ठ पर दी हुई टिप्पणियों से यथोचित समर्थन हो जाता है । इसी प्रकार पंडित जी द्वारा सुझाया गया जिन मन्दिर भी अजीब नाममंगल का आधार माना जा सकता है।
पृष्ठ २९
९. शंका - पृ.२९ पर क्षेत्रमंगल के कथन में लिखा है 'अर्धाष्टारत्न्यादि पंचविंशत्युत्तर पंचधनुःशतप्रमाणशरीर' जिसका अर्थ अपने ‘साढ़े तीन हाथ से लेकर ५२५ धनुष तक के शरीर' किया है, और नीचे फुटनोट में 'अर्धाष्ट इत्यत्र अर्धचतुर्थ इति पठेन