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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका के उद्यापन के समय (यह शास्त्र) श्रीमाघनन्दि व्रतिपति को प्रदान किया । यथा -
श्रीपंचमियं नोंतुध्यापनेयं माडि बरेसि राघ्यांतमना। रूपवती सेनवधू जितकोप श्रीमाघनन्दि व्रतिपति गित्तलू ॥ ..
यहां सेनवधू से शान्ति सेन राजा की पत्नी का ही अभिप्राय है । नाम के एक भाग से पूर्ण नाम को सूचित करना सुप्रचलित है।
यह अन्त की प्रशस्ति वीरवाणीविलास जैनसिद्धान्त भवनकी प्रथम वार्षिक रिपोर्ट (१९३५) में पूर्ण प्रकाशित है।
उक्त परिचय में प्रति के लिखाने व दान किये जाने का कोई समय नहीं पाया जाता । शान्तिसेन राजा का भी इतिहास में जल्दी पता नहीं लगता । माघनन्दि नाम के मुनि अनेक हुए हैं जिनका उल्लेख श्रवणबेल्गोला आदि के शिलालेखों में पाया जाता है । जब शान्तिसेन राजा के उल्लेखादि संबन्धी पूर्ण पद्य प्राप्त होंगे, तब धीरे-धीरे उनके समयादि के निर्णय का प्रयत्न किया जा सकेगा।
हम ऊपर कह आये हैं कि इस प्रतिमें महाबंध रचना के प्रारंभ का पत्र २८ वां नहीं है । शास्त्री जी कीसूचनानुसार प्रति में पत्रनं. १०९, ११४, १७३, १७४, १७६, १७७, १८३, १८४, १८५, १८६, १८८, १९७, २०८, २०९ और २१२ भी नहीं हैं । इसप्रकार कुल १६ पत्र नहीं मिल रहे हैं। किन्तु शास्त्रीजी की सूचना है कि कुछ लिखित ताड़पत्र बिना पत्र संख्या के भी प्राप्त है । संभव है यदि प्रयत्न किया जाय तो इनमें से उक्त त्रुटि की कुछ पूर्ति हो सके।
उत्तरप्रतिपत्ति और दक्षिणप्रतिपत्ति पर कुछ और प्रकाश
प्रथम भाग की प्रस्तावना में ' हम वर्तमान ग्रंथभाग अर्थात् द्रव्यप्रमाणप्ररूपणा में के तथा अन्यत्र से तीन चार ऐसे अवतरणों का परिचय करा चुके हैं जिनमें 'उत्तरप्रतिपत्ति'
और 'दक्षिणप्रतिपत्ति' इस प्रकार की दो भिन्न-भिन्न मान्यताओं का उल्लेख पाया जाता है। वहां हम कह आये हैं कि 'हमने इन उल्लेखों का दूसरे उल्लेखों की अपेक्षा कुछ विस्तार से परिचय इस कारण से दिया है क्योंकि यह उत्तर और दक्षिण प्रतिपत्ति का मतभेद अत्यन्त महत्वपूर्ण और विचारणीय है । संभव है इनसे धवलाकार का तात्पर्य जैन समाज के भीतर
१ षट्खंडागम भाग, १ भूमिका पृष्ठ ५७. २ देखो,पृ. ९२, ९४, ९८ आदि, मूल व अनुवाद