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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
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मूर्तिश्शमस्य नियमस्य विनूतपात्रंक्षेत्रं श्रुतस्य यशसोऽनघजन्मभूमिः । भूविश्रुतश्रितवतासुनभोजकल्पानल्पायुधान्निवसताच्छुभचन्द्रदेवः ॥११॥
स्वस्ति श्रीसमस्तगुणगणालंकृत सत्यशौचाचारचारुचरित्रनयविनयशीलसंपन्नेयु विबुधप्रसन्ने यु आहाराभयभैषज्यशास्त्रदानविनोदेयुं गुणगणाल्हादेयु जिनस्तवनसमयसमुच्छलितदिव्यगन्धबन्धुरगंधोदक्तपवित्रेयुं गोत्रपवित्रेयुं सम्यक्त्वचूडामणियु मण्डलिनादश्रीभुजबलगंगपेर्माडिदेवरत्तेयरुमप्प रविदेवि (?) यकं श्रुतपंचमियं नोंतुजवणेयानाडवन्नियकेरेयुत्तुंगचैत्यालयदाचार्यरुं भुवनविख्यातरुमेनिसिदतम्मगुरगुळु श्रीशुभचन्द्रसिद्धान्तदेव श्रुतपूजयं माडि बरेयिसि कोट्ट धवलेयं पुस्तकं मंगलमहा ॥
___ श्रीकुपणं (कोपणं) प्रसिद्धपुरमापुरदोळगे वंशवार्धिशो भाकरमूर्जितं निखिलसाक्षरिकास्यविलासदर्पणं ।
नाकजनाथवंद्य जिनपादपयोरुहभृग नेन्दु भूलोकमेंदं वर्णिपुदुजिन्नमनं मनुनीतिमार्गनसतीजनदूरं लौकिकार्थदानिगजिन्नम्।
___ जिनपदपद्याराधकमनुपमविनयांबुरशिदानविनोदं मनुनीतिमार्गनसतीजनदूरं लौकिकार्थदानिगजिन्नम्।
वारिनिधियोळगेमुत्तम् नेरिदेवं कोडकोरेदु वरुणं मुददिभारतियकोरळोळिक्किदहारमननुकरिसलेसवरेवों जिन्नम् ॥
यह प्रशस्ति बहुत अशुद्ध और संभवत: स्खलन-प्रचुर है । इसमें गद्य और पद्य तथा संस्कृत कनाड़ी दोनों पाये जाते हैं । बिना मूडबिद्री की प्रति केमिलान किये सर्वथा शुद्ध पाठ तैयार करना असंभव सा प्रतीत होता है। लिपिकारों ने कहीं कहीं कनाड़ी को बिना समझे संस्कृत रूप देने का प्रयत्न किया जान पड़ता है जिससे बड़ी गड़बड़ी उत्पन्न हो गई है । उदाहरणार्थ - कर्ता एक वचन का रूप कुन्दकुन्दाचार्य तृतीया में परिवर्तित कुन्दकुन्दाचार्यैर् पाया जाता है । ऐसे स्थलों को विद्वान् संशोधकों ने खूब संभाला है । पर कई स्खलनों की पूर्ति फिर भी नहीं की जा सकी, कनाड़ी पद्य भी बहुत भ्रष्ट और गद्य के रूप में परिवर्तित हो गये हैं जिनका अर्थ भी समझना कठिन हो गया है। तथापि उससे निम्न बातें स्पष्टत: समझ में आती हैं :
१.धवला की पति बन्नियकेरे चैत्यालय के सुप्रसिद्ध आचार्य शुभचन्द्र सिद्धान्तदेव को समर्पित की गई थी।