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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
१२९ असाधारण घटना तो नहीं कही जा सकती । यथार्थत: अन्य खडों में एक वेदनाखंड को छोड़कर अन्य शेष सब खडों के नाम या तो विषयानुसार कल्पित हैं, जैसे जीवट्ठाण, खुद्दाबंध, व महाबंध । या किसी अनुयोगद्वार के, उपभेद के नामानुसार है, जैसे बंधसामित्तविचय । उसी प्रकार यदि वर्गणा नामक उपविभाग पद से उसके महत्व के कारण एक विभाग का नाम वर्गणाखंड रखा गया हो तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है । चौबीस अधिकारों में से जिस अधिकार या उपभेद का प्रधानत्व पाया गया उसी के नाम से तो खंड संज्ञा की गई है, जैसा कि धवलाकारने स्वयं प्रश्न उठाकर कहा है कि कृति, स्पर्श, कर्म और प्रकृतिका भी यहां प्ररूपण होने पर भी उनकी खंडग्रंथ संज्ञा न करके केवल तीन ही खंड कहे जाते हैं क्योंकि शेष में कोई प्रधानता नहीं है और यह उनके संक्षेप प्ररूपण से जाना जाता है । इसी संक्षेप प्ररूपण का प्रमाण देकर वर्गणा को भी खंड संज्ञा से ध्युत करने का प्रयत्न किया जाता है । पर संक्षेप और विस्तार आपेक्षित शब्द है, अतएव वर्गणा का प्ररूपण धवला में संक्षेप से किया गया है या विस्तार से यह उसके विसतार का अन्य अधिकारों के विस्तार से मिलान द्वारा ही जाना जा सकता है । अतएव उक्त अधिकारों के प्ररूपण - विस्तार को देखिये । बंधसमित्तविचय खंड अमरावती प्रति के पत्र ६६७ पर समाप्त हुआ है । उसके पश्चात् मंगलाचरण व श्रुतावतार आदि विवरण ७१३ पत्र तक चलकर कृतिका प्रारंभ होता है जिसका ७५६ तक ४३ पत्रों में, वेदनाका ७५६ से ११०६ तक ३५० पत्रों में, स्पर्श का ११०६ से १११४ तक ८ पत्रों में, कर्म का १११४ से ११५९ तक ४५ पत्रों में, प्रकृति का ११५९ से १२०९ तक ५० पत्रों में और बंधन के बंध और बंधनीय का १२०९ से १३३२ तक १२३ पत्रों में प्रारूपण पाया जाता है। इन १२३ पत्रों में से बंध का प्ररूपण प्रथम १० पत्रों में ही समाप्त कर दिया गया है, यह कहकर कि
'एत्थ उद्देसेखुद्दाबंधस्स एक्कारस-अणियोगद्दाराणं परूवणा कायव्वा' । इसके आगे कहा गया है कि -
'तेण बंधणिज्ज-परूवणे कीरमाणे वग्गण-परूवणा णिच्छएण कायव्वा, अण्णहा तेबीस-वग्गाणासु इमाचेव वग्गणा बंधपाओग्गा अण्णाओ बंधपाओग्गाओ ण होति त्ति अवगमाणुववत्तीदो । वग्गणाणमणुमम्गणदाए तत्थ इमाणि अट्ठ अणियोगद्दाराणि णादव्वाणि भंवति'इत्यादि।
अर्थात् बंधनीय के प्ररूपण करने में वर्गणा की परूपण निष्चयत: करना चाहिये, १ देखो संतपरूपणा, जिल्द ?, टिप्पणी.