________________
षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
१३०
अन्यथा तेईस वर्गणाओं में ये ही वर्गणाएं बंध के योग्य हैं अन्य वर्गणाएं बंध के योग्य नहीं हैं, ऐसा ज्ञान नहीं हो सकता । उन वर्गणाओं की मार्गणा के लिये ये आठ अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं | इत्यादि
इस प्रकार पत्र १२१९ से वर्गणा का प्ररूपण प्रारंभ होकर पत्र १३३२ पर समाप्त, होता है, जहां कहा गया है कि -
'एवं विस्ससोवचयपरूवणाए समत्ताए बाहिरियवग्गणा समत्ता होदि' ।
इस प्रकार वर्गणा का विस्तार ११३ पत्रों में पाया जाता है, जो उपर्युक्त पांच अधिकारों में से वेदना को छोड़कर शेष सबसे कोई दुगुना व उससे भी अधिक पाया जाता है। पूरा खुद्द बंधखंड ४७५ से ५७६ तक १०१ पत्रों में तथा बंधसामित्तविचयखंड ५७६ से ६६७ तक ९१ पत्रों में पाया जाता है । किन्तु एक अनुयोगद्वार के अवसन्तर के भी अवान्तर भेद वर्गणा का विस्तार इन दोनों खंडों से अधिक है । ऐसी अवस्था में उसका प्ररूपण संक्षिप्त कहना चाहिये या विस्तृत और उससे उसे खंड संज्ञा प्राप्त करने योग्य प्रधानत्व • प्राप्त हो सका या नहीं, यह पाठक विचार करें ।
३. वेदनाखंड के आदि का मंगलाचरण और कौन-कौन खंडों का है ?
वेदनाखंड के आदि में मंगलसूत्र पाये जाते हैं । उनकी टीका में धवलाकार ने खंडविभाग व उनमें मंगलाचरण की व्यवस्था संबंधी जो सूचना दी है उसको निम्न प्रकार उद्धृत किया जाता है
'उवरि उच्चमाणेसु तिसु खंडेसु कस्सेदंमंगलं ? तिण्णं खंडाणं । कुदो ? वग्गणमहाबंधाणमादीए मंगलकरणादो । ण च मंगलेण विणा भूदवलिभडार ओगंथस्स पारभदि, तस्सअणाइरियत्तपसंगादो... कद - पास-कम्म-पर्याडि - अणियोगद्दाराणि वि एत्थ परूविदाणि, तेसिं खंडगंथसण्णमकाऊण तिण्णि चेव खंडाणि त्ति किमहं उच्चदे ? ण, तेसिं पहाणत्ताभावादो । तं पि कुदो णब्बदे ? संखेवेण परूवणादो' ।
वर्गणाखंड को धवलान्तर्गत स्वीकार न करने वाले विद्वान् इस अवतरण को देकर उसका यह अभिप्राय निकालते हैं कि - "वीरसेनाचार्य ने उक्त मंगलसूत्रों को ऊपर कहे हुए तीनों खंडों वेदना, बंधसामित्तविचओ और खुद्दाबंधों का मंगलाचरण बतलाते हुए यह स्पष्ट सूचना की है कि वर्गणाखंड के आदि में तथा महाबंधखंड के आदि में पृथक् मंगलाचरण किया गया है, मंगलाचरण के बिना भूतबलि आचार्य ग्रंथ का प्रारंभ ही नहीं करते हैं। साथ ही यह भी बतलाया है कि जिन कदि, फास, कम्म, पर्याड ( बंधण) अणुयोगद्वारों का भी यहां