________________
१५४
षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका इस प्रकार इन आचार्यों की दिगम्बर मान्यता का क्रम निम्न प्रकार सूचित होता हैधरसेन
अन्तिम प्रज्ञाश्रमण गुणधर -
वइरजस पुष्पदन्त भूतबलि
आर्यमंखु नागहत्थी
यतिवृषभ वइरजसका नाम यतिवृषभ से पूर्व ठीक कहां आता है इसका निश्चय नहीं। आर्यमंखु और नागहत्थी के समकालीन होने की स्पष्ट सूचना पाई जाती है क्योंकि उन दोनों ने क्रम से यतिवृषम को कसायपाहुड पढ़ाया था। क्रम से पढ़ाने से तथा आर्यमंखु का नाम सदैव पहले लिये जाने से इतना ही अनुमान होता है कि दोनों में आर्यमंखु संभवत: जेठे थे। ये दोनों नाम श्वेताम्बर पट्टावलियों में कोई १३० वर्ष के अन्तर से दूर पड़ जाते हैं जिससे उनका समकालीनत्व नहीं बनता । किन्तु यह बात विचारणीय है कि श्वेताम्बर पट्टावलियों में ये दोनों नाम कहीं पाये जाते हैं और कहीं छोड़ दिये जाते हैं, तथा कहीं उनमें से एक का नाम मिलता है दूसरे का नहीं। उदाहरणार्थ, सबसे प्राचीन कल्पसूत्र स्थविरावली' तथा 'पट्टावली सारोद्धार' में ये दोनों नाम नहीं हैं, और 'गुरु पट्टावली' में आर्यभंगुका नाम है पर नागहत्थी का नहीं है । फिर आर्यमंखु और नागहत्थी ने जिनका रचा हुआ कसायपाडुड आचार्यपरम्परा से प्राप्त किया था वे गुणधराचार्य दिगम्बर उल्लेखों के अनुसार महावीर स्वामी से आचार्य -परम्परा की अट्टाईस पीढ़ी पश्चात् निर्वाण संवत् की सातवीं शताब्दि में हुए सूचित होते हैं जब कि श्वेताम्बर पट्टावलियों में उन दोनों में से एक पांचवी और दूसरे सातवीं शताब्दि में पड़ते हैं । इस प्रकार इन सब उल्लेखों पर से निम्न प्रश्न उपस्थित होते हैं :
१. क्या 'तिलोय-पण्णत्ति' में उल्लिखित 'वइरजस' और महानिशीथसूत्र के पदानुसारी 'वइरसामी' तथा श्वेतांबर पट्टावलियों के 'अज्ज वइर' एक ही हैं ?
___२. 'बइरस्वामी ने मूलसूत्र के मध्य पंचमंगलश्रुतस्कंध का उद्धार लिख दिया' इस महानिशीथसूत्र की सूचना का तात्पर्य क्या है ? क्या उनकी दक्षिण यात्रा का और उनके पंचमंगल सूत्र की प्राप्ति का कोई सम्बन्ध है ? क्या धवलाकार द्वारा सूचित णमोकार मंत्र के कर्तृत्व का इससे सामजस्य बैठ सकता है ?
१ राजवार्तिक पृ. १४३ २ देखो पट्टावली समुच्चय।