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षखंडागम की शास्त्रीय भूमिका
१५२ शिवशर्मसूरि कृत पाया जाता है जिसका रचनाकाल अनिश्चित है । एक अनुमान उसके वि.सं. ५०० के लगभग का लगाया जाता है। अतएव यह ग्रंथ तो नागहस्ती के अध्ययन का विषय हो नहीं सकता । फिर या तो यहां कम्मपयडीसे विषय सामान्य का तात्पर्य समझना चाहिये, अथवा, यदि किसी ग्रंथ-विशेष से ही उसका अभिप्राय हो तो वह उसी कम्मपडी या महाकम्मपडिपाहुड से हो सकता है जिसका उद्धार पुष्पदन्त और भूतबलि आचार्यों ने षट्खंडागम रूप से किया है।
तपागच्छ पट्टावली से कोई सवा तीन सौ वर्ष पूर्व वि.सं. १३२७ के लगभग श्री धर्मघोष सूरि द्वारा संगृहीत ‘सिरि-दुसमाकाल-समणसंघ-थयं ' नामक पट्टावली में तो 'वइर' के पश्चात् ही नागहत्थिका उल्लेख किया गया है । यथा -
बीए तिवीस वरं च नागहत्थिं च रेवईमितं । सीहं नागज्जुणं भूइदिश्चयं कालयं वंदे ॥१३॥
ये वइर, वइर द्वितीय या कल्पसूत्र पट्टावली के उक्कोसिय गोत्रीय वईरसेन हैं जिनका समय इसी पट्टावली की अवचूरी में राजगणना से तुलना करते हुए नि.सं. ६१७ के पश्चात् बतलाया गया है । यथा
पुष्पमित्र (दुर्बलिका पुष्पमित्र) २०॥ तथा राजा नाहड: ॥१०॥ (एवं ) ६०५ शाकसंवत्सरः ॥अत्रान्तरे वोटिका निर्गता । इति ६१७ ॥ प्रथमोदयः । वयरसेण ३ नागहस्ति ६९ रेवतिमित्र ५९ बंभदीवगसिंह ७८ नागार्जुन ७८
पणसयरी सयाई तिन्नि-सय-समनिआई अइकमऊं। विक्कमकालाओ तओ बहुली (वलभी) भंगो समुप्पन्नो ॥१॥
इसके अनुसार धीरसंवत् के ६१७ वर्ष पश्चात् वयरसेन का काल तीन वर्ष और उनके अनन्तर नागहस्तिका काल ६९ वर्ष पाया जाता है।
पूर्वोक्त उल्लेखों का मथितार्थ इस प्रकार निकलता है - श्वेताम्बर पट्टावलियों में 'वइर' नामके दो आचार्यों का उल्लेख पाया जाता है जिनके नाम में कहीं-कहीं 'अज वइर'
और 'अज वइरसेन' इस प्रकार भेद किया गया है । कल्पसूत्र स्थविरावली में एकको गौतम गोत्रीय और दूसरे को उक्कासिय गोत्रीय कहा है और उन्हें गुरु-शिष्य बतलाया है । किन्तु अन्य पीछे पट्टावलियों में उनके बीच कहीं-कहीं एक दो नाम और जुड़े हुए पाये जाते हैं।
१ पट्टावली समुच्चय, पृ. १६.