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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
१७१ नमस्कार किया । इसका उत्तर दिया गया है कि उनको नमस्कार तो चौदहपूर्वियों के नमस्कार में आ ही जाता है, पर जैसा जिनवचनप्रत्यय विद्यानुवाद की समाप्ति समय देखा जाता है वैसा ही चौदह पूर्वो की समाप्ति पर पाया जाता है । जब चौदहपूर्वो को समाप्त करके रात्रि में श्रुत-केवली कायोत्सर्ग से विराजमान रहते हैं तब प्रभात समय भवनवासी, बाणव्यंतर, ज्योतिषी, और कल्पवासी देव आकर उनकी शंखतूर्य के साथ महापूजा करते हैं । इस प्रकार यद्यपि जिनवचनत्व की अपेक्षा से सभी पूर्व समान हैं, तथापि विद्यानुप्रवाद और लोकबिन्दुसार का महत्व विशेष है, क्योंकि यहीं देवों द्वारा पूजा प्राप्त होती है । दोनों अवस्थाओं में विशेषता केवल इतनी है कि चतुर्दशपूर्वधारी फिर मिथ्यात्व में नहीं जा सकता और उस भव में असंयम को भी प्राप्त नहीं होता। - इससे जाना जाता है कि श्रुतपाठियों की विद्या एक प्रकार से दशम पूर्व पर ही समाप्त हो जाती थी, वहीं वह देवपूजा को भी प्राप्त कर लेता था और यदि लोभ में आकर पथभ्रष्ट न हुआ तो 'जिन' संज्ञा का भी अधिकारी रहता था। इससे दिगम्बर सम्प्रदाय में दृष्टिवाद के प्रथमानुयोग नामक विभाग को पूर्वगतसे पहले रखने की सार्थकता भी सिद्ध हो जाती है। यदि पूर्वगत के पश्चात् प्रथमानुयोग रहा तो उसका तात्पर्य यह होगा कि दशपूर्वियों को उसका ज्ञान ही नहीं हो पायगा । अतएव इस दशपूर्वी की मान्यता के अनुसार प्रथमानुयोग को पूर्वोसे पहले रखना बहुत सार्थक है। आगे के शेष पूर्व और चूलिकाएं लौकिक और चमत्कारिक विद्याओं से ही संबंध रखती हैं, वे आत्मशुद्धि बढ़ाने में उतनी कार्यकारी नहीं हैं, जितनी उसकी दृढ़ता की परीक्षा कराने में हैं।
भिन्न और अभिन्न दशपूर्वी की मान्यता का निर्देश नंदीसूत्र में भी है, यथा -
'इच्चेअं दुवालसंगं गणिपिडगं चोद्दसपुन्विस्स सम्मसुअं अभिण्णदसपुन्विस्स सम्मसुअं, तेण परं भिण्णेसु भयणा से तं सम्मसुअं'
(सू.४१) टीकाकार ने भिन्न और अभिन्न दशपूर्वी का स्पष्टीकरण इस प्रकार कियाहै -
'इत्येतद् द्वादशांग गणिपिटकं यश्चतुर्दशपूर्वी तस्य सकलमपि सामायिकादि बिन्दुसार- पर्यवसानं नियमात् सम्यक् श्रुतं । ततो अधोमुखपरिहान्या नियमत: सर्व सम्यक् श्रुतं तावद् वक्तव्यं यावदभिन्नदश-पूर्विण: - सम्पूर्णदशपूर्वधरस्य । सम्पूर्णदशपूर्वधरत्वादिकं हि नियमत: सम्यग्दृष्टेरेव, न मिथ्यादृष्टेः, तथा स्वाभाव्यात् । तथाहि, यथा अभव्यो ग्रंथिदेशमुपागतोऽपि तावदवगाहते यावत्किश्चन्नयूनानि दशपूर्वाणि भवन्ति, परिपूर्णानि तु तानि नावगाढुं शक्राति तथा स्वभावत्वादिति । इत्यादि