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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका अंग है । पर उसमें भी 'वेयणाखंड समत्ता' वाक्य होना चाहिये था । समालोचक का यह भी अनुमान गलत नहीं कहा जा सकता कि इस वाक्य में खंड शब्द संभवत: प्रक्षिप्त हैं, उस शब्द को निकाल देने से 'वेयणा समत्ता' वाक्य भी ठीक बैठ जाता है। हो सकता है कि वह लिपिकार द्वारा प्रक्षिप्त हुआ हो । पर विचारणीय बात यह है कि वह कब और किसलिये प्रक्षिप्त किया गया हो । इस प्रक्षेप को आधुनिक लिपिकारकृत तो समालोचक भी नहीं कहते। यदि वह प्रक्षिप्त है तो उसी लिपिकारकृत हो सकता है जिसने मूडविद्रीकी ताड़पत्रीय प्रति लिखी। हम अन्यत्र बतला चुके हैं कि वह प्रति संभवत: शक की ९ वी १० वीं शताब्दि की, अर्थात् आज से कोई हजार आठ सौ वर्ष पुरानी है । उस प्रक्षिप्त वाक्य से उस समय के कम से कम एक व्यक्ति का यह मत तो मिलता ही है कि वह वहां वेदनाखंड की समाप्ति समझता था। उससे यह भी ज्ञात हो जाता है कि उस लेखक की जानकारी में वहीं से दूसरा खंड अर्थात् वर्गणाखंड प्रारंभ हो जाता था, नहीं तो वह वहां वेदनाखंड के समाप्त होने की विश्वासपूर्वक दो दो बार सूचना देने की धृष्टता न करता । यदि वहां खंडसमाप्ति होने का इसके पास कोई आधार न होता तो उसे जबर्दस्ती वहां खंड शब्द डालने की प्रवृत्ति ही क्यों होती ? समालोचक लिपिकार की प्रक्षेपक प्रवृत्ति को दिखलाते हुए कहते हैं कि अनेक अन्य स्थलों पर भी नाना प्रकार के वाक्य प्रक्षिप्त पाये जाते हैं। यह बात सच है, पर जो उदाहरण उन्होंने बतलाया है वहां, और जहां तक मैं अन्य स्थल ऐसे देख पाया हूं वहां सर्वत्र यही पाया जाता है कि लेखक ने अधिकारों की संधि आदि पाकर अपने गुरु या देवता का नमस्कार या उनकी प्रशस्ति संबंधी वाक्य या पद्य इधर-उधर डाले हैं। यह पुराने लेखकों की शैली सी रही है । पर ऐसा स्थल एक भी देखने में नहीं आता जहां पर लेखक ने अधिकार संबंधी सूचना गलत गलत अपनी ओर से जोड़ या घटा दी हो । अतएव चाहे वह खंड शब्द मौलिक हो और चाहे किसी लिपिकार द्वारा प्रक्षिप्त, उससे वेदना खंड के वहां समाप्त होने की एक पुरानी मान्यता तो प्रमाणित होती ही है। ५. इन्द्रनन्दि की प्रामाणिकता
इन्द्रनन्दि और विवुध श्रीधर ने अपने अपने श्रुतावतार कथानकों में षटखंडागम की रचना व धवलादि टीकाओं के निर्माण का विवरण दिया है । विबुध श्रीधर का कथानक तो बहुत कुछ काल्पनिक है, पर उसमें भी धवलान्तर्गत पांच या छह खंडोंवाली वार्ता में कुछ अविश्वनीयता नहीं दिखती इन्द्रनन्दि ने प्रकृत विषय से संबंध रखने वाली जो वार्ता दी है उसको हम प्रथम जिल्द की भूमिका में पृ. ३० पर लिख चुके हैं। उसका संक्षेप यह है कि वीरसेन ने उपरितन निबन्धनादि उठारह अधिकार लिखे और उन्हें ही सत्कर्मनाम छठवां