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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
१०६ संस्कार पड़ा है। ऐसी ही भाषा को पिशेल आदि पाश्वमिक विद्वानों ने जैन शौरसेनी नाम दिया है।
सूत्रों में अर्धमागधी वर्णविकार का बाहुल्य है। सूत्रों में एक मात्र क्रिया 'अस्थि' आती है और वह एकवचन व बहुवचन दोनों की बोधक है । यह भी सूत्रों के प्राचीन आर्ष प्रयोग का उदाहरण है।
गाथाएं प्राचीन साहित्य के भिन्न-भिन्न ग्रंथों की भिन्न-भिन्न कालकी रची हई अनुमान की जा सकती हैं । अतएव उनमें शौरसेनी व महाराष्ट्रीपन की मात्रा में भेद है । किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि भाषा जितनी अधिक पुरानी है उतना उसमें शौरसेनीपन अधिक है और जितनी अर्वाचीन है उतना महाराष्ट्रीपन । महाराष्ट्री का प्रभाव साहित्य में पीछे-पीछे अधिकाधिक पड़ता गया है । उदाहरण के लिये प्रस्तुत ग्रंथ की गाथा नं.२०३ लीजिय जो यहां इस प्रकार पाई जाती है -
रूसदि णिंददि अण्णे दूसदि बहुसो य सोय-भय-बहुलो। असुयदि परिभवदि परं पसंसदि अप्पयं बहुसो॥ इसी गाथा ने गोम्मटसान (जीवकांड ५१२) में यह रूप धारण कर लिया है - रूसइ जिंदइ अण्णे दूसइ बहुसो य सोय-भय-बहुलो। असुयइ परिभवइ परं पसंसए अप्पयं बहुसो॥
यहां की गाथाओं का गोम्मटसार में इस प्रकार का महाराष्ट्री परिवर्तन बहुत पाया जाता है। किन्तु कहीं-कहीं ऐसा भी पाया जाता है कि जहां इस ग्रंथ में महाराष्ट्रीपन है वहां गोम्मटसार में शौरसेनीपन स्थिर है । यथा, गाथा २०७ में यहां 'खमइ बहुअं हि' है वहां गो.जी. ५१६ में 'खमदि बहुगं पि' पाया जाता है । गाथा २१० में यहां 'एण-णिगोद' है, किन्तु गोम्मटसार १९६ में उसी जगह 'एग -णिगोद' है । ऐसे स्थलों पर गोम्मटसार में प्राचीन पाठ रक्षित रह गया प्रतीत होता है । इन उदाहरणों से यह भी स्पष्ट है कि जब तक प्राचीन ग्रंथों की पुरानी हस्तलिखित प्रतियों की सावधानी से परीक्षा न की जाय और यथेष्ठ उदाहरण सन्मुख उपस्थित न हों तब तक इनकी भाषा के विषय में निश्चयतःकुछ कहना अनुचित है।
टीका का प्राकृत गद्य प्रौढ, महावरेदार और विषय के अनुसार संस्कृत की तर्कशैली से प्रभावित है । सन्धि और समासों का भी यथास्थान बाहुल्य है । यहां यह बात उल्लेखनीय है कि सूत्र-ग्रंथों को या स्फुट छोटी-मोटी खंड रचनाओं को छोड़कर दिगम्बर साहित्य में