________________
१००
षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका स्थान पर कहीं-कहीं ह और पूर्वकालिक कृदन्त के रूप संस्कृत प्रत्यय त्वा के स्थान पर त्ता, इअ या दूण होता है । जैसे - सुत: सुदो, भवति-भोदि या होई, कथम्-कधं, कृत्वा-करित्ता, करिअ, करिदूण, आदि । उदाहरण -
रत्तो बंधधदि कम्मं मुच्चदि कम्मेहिं राग-रहिदप्पा। एसो बंधसमासो जीवाणं जाण णिच्छयदो ॥ प्रवच. २, ८७ णो सद्दहति सोक्खं सुहेसु परमं ति विगद-घादीणं। सुणिदण ते अभव्वा भव्वा वा तं पडिच्छंति ॥ पवच.१.६२.
अर्थात् आत्मा रक्त होकर कर्म बांधता है तथा रागरहित होकर कर्मों से मुक्त होता है। यह जीवों का बंध समास है, ऐसा निश्चय जानो।
घातिया कर्मों से रहित (केवली भगवान् ) का सुख ही सुखों में श्रेष्ठ है, ऐसा सुनकर जो श्रद्धा नहीं करते वे अभव्य हैं, और जो भव्य हैं वे उसे मानते हैं। महाराष्ट्री
महाराष्ट्री प्राकृत प्राचीन महाराष्ट्र की भाषा है जिसका स्वरूप गाथासप्तशती, सेतुबंध, गउडवह आदि काव्यों में पाया जाता है। संस्कृत नाटकों में जहा प्राकृत का प्रयोग होता है वहां पात्र बातचीत तो शौरसेनी में करते हैं और गाते महाराष्ट्री में हैं, ऐसा विद्वानों का मत है । इसका उपयोग जैनियों ने भी खूब किया है । पउमचरिअं, समराइच्चकहा, सुरसुंदरीचरिअं, पासणाहचरिअं आदि काव्य और श्वेताम्बर आगम सूत्रों के भाष्य, चूर्णी, टीका, आदि की भाषा महाराष्ट्री प्राकृत है । पर यहां भी जैनियों ने इधर-उधर से अर्धमागधी की प्रवृत्तियां लाकर उस पर अपनी छाप लगा दी है, और इस कारण इन ग्रंथों की भाषा जैन महाराष्ट्री कहलाती है । जैन महाराष्ट्री में सप्तशती व सेतुबंध आदि की भाषा से विलक्षण आदि व, द्वित्वमें न और लुप्त वर्ण के स्थान पर य श्रुतिका उपयोग हुआ है, जैसा जैन शौरसेनी में भी होता है । महाराष्ट्री के विशेष लक्षण जो उसे शौरसेनी से पृथक करते हैं, ये हैं कि यहां मध्यवर्ती त का लोप होकर केवल उसका स्वर रह जाता है, किंतु वह द में परिवर्तित नहीं होता। उसी प्रकार थ यहां ध में परिवर्तित न होकर ह में परिवर्तित होता है, और क्रिया का पूर्वकालिक रूप अग लगाकर बनाया जाता है। जैन महाराष्ट्री में इन विशेषताओं के अतिरिक्त कहीं-कहीं र का ल व प्रथमान्त ए आ जाता है। जैसे -
जानाति-लाणइ, कथम्-कहं, भूत्वा-होउण, आदि ।