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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका आइरियपरंपरागदमिदि एयट्ठो । तिरिक्खेसु तिण्णि पक्ख तिण्णि दिवस अतोमुहुत्तस्सुवरि सम्मतं संजासंजमं च पडिवज्जदि । मणुसेसु अट्ठवस्साणमुवरि सम्मत्तं संजमं संजमासंजमं च पडिवज्जदि । एसा उत्तरपडिवत्ती, उत्तरमणुज्जुवं आइरियपरंपराए णागदमिदि एयट्ठो धवला.अ. ३३०
__ इसका तात्पर्य यह है कि सम्यक्त्व और संयमासंयमादि धारण करने की योग्यता दक्षिण प्रतिपत्ति अनुसार तिर्यंचों में (जन्म से) २ मास और मुहूर्तपृथक्त्व के पश्चात होती है, तथा मनुष्यों में गर्भ से ८ वर्ष और अन्तर्मुहूर्त के पश्चात होती है । किन्तु उत्तर प्रतिपत्ति के अनुसार तिर्यंचोंमें वही योग्यता ३ पक्ष, ३ दिन और अन्तर्मुहूर्त के उपरान्त, तथा मनुष्यों में ८ वर्ष के उपरान्त होती है। धवलाकार ने दक्षिण प्रतिपत्ति को यहां भी दक्षिण, ऋजु व आचार्य-परंपरागत कहा है और उत्तर प्रतिपत्ति को उत्तर, अनृजु और आचार्य-परम्परा से अनागत कहा है।
हमने इन उल्लेखों का दूसरे उल्लेखों की अपेक्षा कुछ विस्तार से परिचय इस कारण दिया है, क्योंकि, यह उत्तर और दक्षिण प्रतिपत्तिका मतभेद अत्यन्त महत्वपूर्ण और विचारणीय है। संभव है इनसे धवलाकार का तात्पर्य जैन समाज के भीतर की किन्हीं विशेष साम्प्रदायिक मान्यताओं से ही हो ? तिलोयपण्णत्ति सूत्र व यतिवृषभाचार्य -
धवला में जिन अन्य आचार्यों व रचनाओं के उल्लेख दृष्टिगोचर हुए हैं वे इस प्रकार हैं। त्रिलोकप्रज्ञप्ति को धवलाकार ने सूत्र कहा है और उसका यथास्थान खूब उपयोग किया है । हम उपर यह कह आये हैं कि सत्प्ररूपणा में तिलोयपण्णत्तिके मुद्रित अंश की सात गाथाएं ज्यों की त्यों पाई जाती हैं और उसके कुछ प्रकरण भाषा-परिवर्तन करके ज्यों के त्यों लिखे गये हैं । इस ग्रंथ के कर्ता यतिवृषभाचार्य कहे जाते हैं जो जयधवला के अतर्गत कषायप्राभृत पर चूर्णिसूत्र रचने वाले यतिवृष से अभिन्न प्रतीत होते हैं । सत्प्ररूपणा में भी यतिवृषभका उल्लेख आया है ३ व आगे भी उनके मत का उल्लेख किया गया है।
१. तिरियलोगो त्ति तिलोयपणत्तिसुत्तादो । धवला. अ. १४३.
चंदाइच्चबिंबपमाणपरूवयतिलोयपण्णत्तिसुत्तादो । धवला. अ. १४३. तिलोयपण्णत्तिसुताणुसारि । धवला.अ.२५९. २. Catalogue of Sans. & Prak. Mss. in C.P. & Berar, Intro. p. XV. ३. यतिवृषभोपदेशात् सर्वघातिकर्मणां इत्यादि। धवला. अ. ३०२ ४. एसो दंसणमोहणीय-उवसामओ त्ति जइवसहेण भणिदं । धवला. अ. ४२५