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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
१. मिथ्यात्व अवस्था में जीव अज्ञान के वशीभूत होता है और इसका कारण दर्शन मोहनीय कर्म का उदय है । सासादन और मिश्र मिथ्यात्व और सम्यग्दृष्टि के बीच की अवस्थाएं हैं। चौथे गुणस्थान में सम्यकत्व हो जाता है किन्तु चारित्र नहीं सुधरता । देशविरत का चारित्र थोड़ा सुधरता है, प्रमत्तविरत का चारित्र पूर्ण तो होता है, किन्तु परिणामों की अपेक्षा अप्रमत्तविरत से चारित्र की क्रम से शुद्धि व वृद्धि होती जाती है । ग्यारहवें गुणस्थान में चारित्र मोहनीय का उपशम हो जाता है और बारहवां गुणस्थान चारित्र मोहनीय के क्षय से उत्पन्न होता है । तेरहवें गुणस्थान में सम्यग्ज्ञान की पूर्णता है किन्तु योगों का सद्भाव भी है । अन्तिम गुणस्थान में दर्शन, ज्ञान और चारित्र की पूर्णता तथा योगों का अभाव हो जाने से मोक्ष हो जाता है।
मार्गणा शब्द का अर्थ खोज करना है । अतएव जिन-जिन धर्मविशेषों से जीवों की खोज या अन्वेषण किया जाय उन धर्मविशेषों को मार्गणा कहते हैं । ऐसी मार्गणाएं चौदह हैं - गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञित्व, और आहार । . १. गति चार प्रकार की हैं - नरक, तिर्यच, मनुष्य और देव।
२. इन्द्रियां द्रव्य और भावरूप होती हैं और वे पांच प्रकार की हैं - स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र।
३. एकेन्द्रिय से पांच इन्द्रियों तक की शरीर रचना को कार्य कहते हैं। एकेन्द्रिय जीव स्थावर और शेष त्रस कहलाते हैं। .
४. आत्मप्रदेशों की चंचलता का नाम योग है इसी से कर्मबंध होता है। योग तीन निमित्तों से होता है - मन, वचन और कार्य ।
५. पुरुष, स्त्री व नपुंसकरूप भाव व तद्रूप अवयवविशेष को वेद कहते हैं।
६. जो आत्मा के निर्मल भाव व चारित्र को कषै अर्थात् घात पहुंचाये वह कषाय है। उसके क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार भेद हैं।
७. मति, श्रुति, अवधि, मन:पर्यय, केवल, तथा कुमति, कुश्रुति और कुअवधि रूप से ज्ञान आठ प्रकार का होता है।
८. मन व इन्द्रियों की वृत्ति के निरोध का नाम संयम है और यह संयम हिंसादिक पापों की निवृत्ति से प्रकट होता है । सामायिक छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसांपराय, यथाख्यात, संयमासंयम और असंयम, ये संयम के सात भेद हैं।