________________
षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
'केवि पुवुत्तपमाणं पंचूणं करेति । एदं पंचूणं वक्खाणं पवाइज्जमाणं दक्खिणमाइरिय - परंपरागयमिदिजं वृत्तं होई । पुव्वुत्त-वक्खाणमपवाइज्ज माणं वाउं आइरियपरम्पराअणागदमिदि णायव्वं ।'
७५
अर्थात् कोई-कोई पूर्वोक्त प्रमाण में पांच की कमी करते हैं । यह पांच की कमी का व्याख्यान-प्रवचन प्राप्त है, दक्षिण है और आचार्य - परम्परागत है । पूर्वोक्त व्याख्यान प्रवचन प्राप्त नहीं है, वाम है और आचार्य परम्परा से आया हुआ भी नहीं है, ऐसा जानना चाहिये ।
इसी के आगे क्षपकश्रेणी की संख्या ६०५ बताकर कहा गया है -
एसा उत्तर- पडिवत्ती । एत्थ दस अवणिदे दक्खिण - पडिवत्ती हवदि ।
अर्थात यह (६०५ की संख्यासंबंधी) उत्तर प्रतिपत्ति है इसमें से दश निकाल देने पर दक्षिण - प्रतिपत्ति हो जाती है ।
आगे चलकर द्रव्यप्रमाणानुयोगद्वार में ही संयतों की संख्या ८९९९९९९७ बतलाकर कहा है 'एसा दक्खिण - पडिवत्ती' इसके अन्तर्गत भी मतभेदादिका निरसन करके, फिर कहा है 'एत्तो उत्तर-पडिवत्ति वत्तइस्सामो' और तत्पश्चात् संयतों की संख्या ६९९९९९९६ बतलाई है। यहां इनकी समीचीनता के विषय में कुछ नहीं कहा ।
दक्षिण-प्रतिपत्ति के अंतर्गत एक और मतभेद भी उल्लेख किया गया है । कुछ आचार्यों ने उक्त संख्या के संबंध में जो शंका उठाई है उसका निरसन करके धवलाकार कहते हैं।
'जं दूसणं भणिदं तण्ण दूसणं, बुद्धिविहुणाइरियमुहविणिग्गयत्तादो ।'
अर्थात् 'जो दूषण कहा गया है वह दूषण नहीं है, क्योंकि वह बुद्धिविहीन आचार्यों के मुख से निकली हुई बात है'। संभव है वीरसेन स्वामी ने किसी समसायिक आचार्य की शंका को ही दृष्टि में रखकर यह भर्त्सना की हो ।
उत्तर और दक्षिण प्रतिपत्ति भेद का तीसरा उल्लेख अन्तरानुयोगद्वार में आया है जहां तिर्यंच और मनुष्यों के सम्यक्त्व और संयमादि धारण करने की योग्यता के कालका विवेचन करते हुए लिखते हैं -
'एत्थ वे उवदेसा, तं जहा - तिरिक्खेसु वेमासमुहुत्तपुधत्तस्सुवरि सम्मतं संजमासंजमं च जीवो पडिवज्जदि । मणुसेसु गब्भादिअट्ठवस्सु अंतोमुहुत्तब्भहिएसु सम्मतं संजमं संजमासंजमं च पडिवज्जदि त्ति । एसा दक्खिणपडिवत्ती । दक्खिणं उज्जुवं