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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका पर ४८ हजार श्लोक प्रमाण टीका रची । इस टीका की भाषा अत्यंत सुन्दर और मृदुल संस्कृत थी।
यहां इन्द्रनन्दि का अभिप्राय निश्चयत: आप्तमीमांसादि सुप्रसिद्ध ग्रन्थों के रचयिता से ही है, जिन्हें अष्टसहस्री के टिप्पणकार ने भी 'तार्किकार्क' कहा है । यथातदेवं महाभागैस्तार्किकारुपज्ञातां .............. आप्तमीमांसाम् ........
(अष्टमस. पृ. १ टिप्पण) धवला टीका में समन्तभद्र स्वामी के नाम सहित दो अवतरण हमारे दृष्टिगोचर हुए हैं। इनमें से प्रथम पत्र ४९४ पर है । यथा -
'तहा समंतभद्दसामिणा वि उत्तं, विधिर्विषक्तपतिषेधरूप ............ इत्यादि' यह श्लोक बृहत्स्वयम्भूस्तोत्रका है । दूसरा अवतरण पत्र ७०० पर है । यथा - 'तथा समंतभद्रस्वामिनाप्युक्तं, स्याद्वादप्रविभक्तार्थविशेषव्यंज को नयः ।
यह आप्तमीमांसा के श्लोक १०६ का पूर्वार्ध है । और भी कुछ अवतरण केवल 'उक्तं च' रूप से आये हैं जो बृहत्स्वयभूस्तोत्रादि ग्रन्थों में मिलते हैं । पर हमें ऐसा कहीं कुछ अभी तक नहीं मिल सका जिससे उक्त टीका का पता चलता । श्रुतावतार के 'आसन्ध्यां पलरि' पाठ में संभवत: आचार्य के निवास स्थान का उल्लेख है, किन्तु पाठ अशुद्ध सा होने के कारण ठीक ज्ञात नहीं होता।
__ जिनसेनाचार्यकृत हरिवंशपुराण में समन्तभद्र निर्मित 'जीवसिद्धि' का उल्लेख आया है , किन्तु यह ग्रंथ अभीतक मिला नहीं है । कहीं यह समन्तभद्रकृत 'जीवट्टाण' की टीका का ही तो उल्लेख न हो ? समन्तभद्रकृत गंधहस्तिमहाभाष्य के भी उल्लेख मिलते हैं, जिनमें
१. कालान्तरे तत: पुनरासंध्यां पलरि ? ) तार्किकार्कोभूत् ॥ १६७॥
श्रीमान् समन्तभद्रस्वामीत्यथ सोऽप्यधीत्य तं द्विविधम्। सिद्धान्तमत: षट्खण्डागमगतखण्डपञ्जकस्य पुन: ॥ १६८॥ अष्टौ चत्वारिंशत्सहस्रसद्ग्रन्थरचनया युक्ताम्। विरचितवानतिसुन्दरमृदुसंस्कृतभाषया टीकाम् ॥ १६९ ॥ इन्द्र श्रुतावतार. २. देखो, पं. जुगलकिशोर मुख्तारकृत समन्तभद्र पृ.२१२ ३. जीवसिद्धिविधायीह कृतयुक्त्यनुशासनम् । वच: समन्तभद्रस्य वीरस्येव विजृभते ॥
हरिवंशपुराण १३०.