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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
परिपाटी से कुन्दकुन्दपुर के पद्मनन्दि मुनि को प्राप्त हुआ, और उन्होंने सबसे पहले षट्खण्डागम के प्रथम तीन खण्डों पर बारह हजार श्लोक प्रमाण एक टीका ग्रन्थ रचा जिसका नाम परिकर्म था । हम ऊ पर बतला आये हैं कि इद्रनन्दिका कुन्दकुन्दपुर के पद्मनन्दि से हमारे उन्हीं प्रातः स्मरणीय कुन्दकुन्दाचार्य का ही अभिप्राय हो सकता है जो दिगम्बर जैन सम्प्रदाय में सबसे बड़े आचार्य गिने गये हैं और जिनके प्रवचनसार, समयसार आदि ग्रंथ जैन सिद्धान्त के सर्वोपरि प्रमाण माने जाते हैं। दुर्भाग्यत: उनकी बनायी यह टीका प्राप्य नहीं है और न किन्हीं अन्य लेखकों ने उसके कोई उल्लेखादि दिये । किन्तु स्वयं धवला टीका में परिकर्म नाम के ग्रन्थ का अनेकबार उल्लेख आया है । धवलाकार ने कहीं 'परिकर्म' से उद्धृत किया है, २ कहीं कहा है कि यह बात ‘परिकर्म' के कथन पर से जानी जाती है ३ और कहीं अपने कथन का परिकर्म के कथन से विरोध आने की शंका उठाकर उसका समाधान किया है । एक स्थान पर उन्होंने परिकर्म के कथन के विरुद्ध अपने कथन की पुष्टि भी की है और कहा है कि उन्हीं के व्याख्यान को ग्रहण करना चाहिए, परिकर्म के व्याख्यान को नहीं, क्योंकि, वह व्याख्यान सूत्र के विरुद्ध जाता है । इससे स्पष्ट ही ज्ञात होता है कि 'परिकर्म' इसी षट्खण्डागम की टीका थी। इसकी पुष्टि एक और उल्लेख से होती है जहां ऐसा ही विरोध उत्पन्न होने पर कहा है कि यह कथन उस प्रकार नहीं है, क्योंकि, स्वयं 'परिकर्म की' प्रवृत्ति इसी सूत्र के बल से हुई है । इन उल्लेखों से इस बात में कोई सन्देह नहीं रहता कि 'परिकर्म' नाम का ग्रंथ था, उसमें इसी आगम का व्याख्यान था और वह ग्रंथ वीरसेनाचार्य के सन्मुख विद्यमान था । एक उल्लेख द्वारा धवलाकार ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि 'परिकर्म' ग्रंथ को सभी आचार्य प्रमाण मानते थे ।
१. एवं द्विविधो द्रव्यभावपुस्तकगत: समागच्छन् । गुरुपरिपाट्या ज्ञात: सिद्धान्त: कुण्डकुन्दपुरे ॥ १६०॥ श्रीपद्मनन्दिमुनिना सोऽपि द्वादशसहस्रपरिमाण: । ग्रन्थपरिकर्मक; षट्खण्डाद्यत्रिखण्डस्य ॥ १६१ ॥
इन्द्रः श्रुतावतार. २. "ति परियग्म वुत्तं' (धवला अ. १४१) 'परियम्मम्मि वुत्तं' (धवला अ. ६७८) ३. 'परियममवयणादो णव्वदे' (धवला अ. १६७) 'इदि परियम्मवयणादो' (धवला अ. २०३) ४. 'ण च परियम्मेण सह विरोही (धवला. अ. २०३)
परियम्मवयणेण सह एवं सुत्तं विरुज्झदि त्ति ण (धवला अ. ३०४) ५. परियम्मेण एवं वक्खाणं किण्ण विरुज्झदे ? एदेण सह विरुज्झदे, किंतु सुत्तेण सह ण विरुज्झदे। तेण
एदस्स वक्खाणस्स गहणं कायव्वंए ण परियममस्स तस्स सुत्तविरुज्झत्तादो। (धवला अ. २५९) ६. परियम्मादो असंखेज्जाओ जोयणकोडीओ सेढीए पमाणमवगदमिदि चे ण, एदस्स सुत्तस्स वलेण
परियम्मपवुत्तीदो।' (धवला अ.पृ. १८६) ७. 'सयलाइरियसम्मदपरियम्मसिद्धत्तादो' । (धवला अ. पृ. ५४२)