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प्रथमः पादः एगो । अमुकः अमुगो । असुकः असुगो। श्रावकः सावगो। आकारः आगारो। तीर्थकरः नित्थगरो। आकर्षः । आगारिसो। लोगस्सुज्जो अगरा। इत्यादिषु तु व्यत्ययश्च ( ४.४४७ ) इत्येव कस्य गत्वम् । आर्षे अन्यदपि दृश्यते । आकुश्वनं आ उण्टणं । अत्र चस्य टत्वम् ।
स्वर अगले, अनादि होने वाले और असंयुक्त ऐसे जो क् ग् च् ज् त् द् प्य और व् व्यंजन, उनका प्रायः लोप होता है । उदा०-क् ( का लोप )-नित्थयरो... सयडं । ग् ( का लोप )-न ओ'मयंको । च् ( का लोप)-सइगहो । ज ( का लोप )-रथयं 'गओ। त् ( का लोप )-विआणं 'जई । द् ( का लोप )-गया मयणो । ५ ( का लोप )-रिऊ, सुउरिसो। य् ( का लोप ) दयालू बिओओ । व ( का लोप -लायणं. "याणलो। प्रायः ( लोप होता है ) ऐसा निर्देश होने से, क्वचित् ( क् ग् च ज इत्यादि का लोप ) नही होता है । उदा.-सुकुसूमंदाणवो। स्वर के आगे ही ( होने वाले क् ग् इत्यादि का लोप होता है। इसलिए पोछे अनुस्वार होने पर, ऐसा लोप नहीं होता है। उदा०-) संकरो...संवरो। ( क ग इत्यादि ) असंयुक्त होने पर ही ( उनका लोप होता है। वे संयुक्त हो, तो उनका लोप नहीं होता हैं । उदा० .-) अक्को...सव्वं । क्वचित् संयुक्त होने वाले ( क इत्यादि का लोप होता है । उदा.---.) नक्तंचरः नक्कंचरो । अनादि होने वाले ही ( क् ग् इत्यादि का लोप होता है; वे आदि हो,तो उनका लोप नहीं होता है । उदा:-) कालो "वण्णो । यकार आदि होने पर, उसका ज होता है, यह आगे (सूत्र १ २४५ में) कहा जाएगा। समास में तो वाक्य विभक्तिकी अपेक्षा से ( द्वितीय पद ) भिन्न है ऐसी विवक्षा हो सकती है। उस कारण उस स्थान पर जैसा साहित्य में दिखाई देता है वैसा दोनों भी (=यानी समास में द्वितीय पदके आदि व्यंजन कभी आदि तो कभी अनादि समझकर, वर्णान्तर ) होते हैं। उदा-सुहकरो' 'सुहओ, इत्यादि । क्वचित् ( च ५ इत्यादि ) आदि होने पर भी ( उसका लोप होता है। उदा०-) स पुनः · इन्धं । क्वचित् च का ज होता है। उदा०-पिशाची, पिसाजी। परंतु एकत्वं एगत्तं ' ज्जो इत्यादि शब्दों में, 'व्यत्ययश्च' सूत्रानुसार क का ग् होता है। आर्व प्राकृत में अन्य वर्णान्तर भी दिखाई देता है । उदा०-आकुञ्चनं आउण्टणं; यहाँ च का ट् हुआ है।
यमुनाचामुण्डाकामुकातिमुक्तके मोनुनासिकश्च ।। १७८ ॥ एषु मस्य लुग् भवति लुकि च सति मस्य स्थाने अनुनासिको भवति । जउँणा । चाउँण्डा। काउँओ। अणिउँतयं । क्वचिन्न भवति । अइमंतयं अइ. मुत्तयं । - यमुना, चामुण्डा, कामुक, अतिमुक्तक शब्दों में, म् का लोप होता है, और लोप होने पर, भ के स्थान पर अनुनासिक आता है। उदा.-जउँणा' 'अणि उतयं । क्वचित् (भ का लोप ) नहीं होता है । उदा-अइ{तयं, अइमुत्तयं । ७. लोकस्य उद्योतकराः ।
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