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प्राकृत व्याकरण-प्रथमपाद
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१.६ तिबादीनाम्-इस शब्द में सूत्र के त्यादेः शब्द का अनुवाद है । त्यादि किंवा तिबादि यानी धातु को लगने वाले काल और अर्थो के प्रत्यय । 'तिप तस् ... ..'महिङ्' (पाणिनि सूत्र ३.४.७८) ऐसे ये प्रत्यय हैं। उनमें से आदि ति अथवा तिप् शब्द से त्यादि किंवा तिबादि ( = तिप् +- आदि ) संज्ञा बनी है। होइ इह-यहाँ होइ इस धातु रूप में से इ और अगला इ इनकी सन्धि नहीं
१.१० लुग (लक)-लोप । प्रसंगवशात् उच्चारण में प्राप्त हुए वर्ण इत्यादि के श्रवण का अभाव ( अदर्शन ) यानी लोप। ति असीसो--ति अस + ईस । ति अस में से अन्त्य अ का लोप हुआ है। नोसासू सासा-नीसास + ऊसासा । नीसास में से अन्त्य अ का लोप हुआ है।
१.११ अन्त्य-~-अन्तिम । शब्द में वर्गों के स्थान निश्चित करते समय, पहले वर्गों का विच्छेद करके, उच्चारण के क्रम के अनुसार, उनके स्थान निश्चित किए जाते हैं । उदा.- केशव = क् + ए + श + अ + व + अ । यहाँ क आदि है, और अ अन्त्य है; शेष वर्ण अनादि अथवा मध्य होते हैं। मरुत् शब्द में त् अन्त्य व्यञ्जन है। समासे भवति--समास में पहले पद का अन्त्य व्यञ्जन कभी अन्त्य माना जाता है तो कभी वह अन्त्य नहीं माना जाता है; तब उस उस मानने के अनुसार योग्य वर्णान्तर होता है। उदा०-10-भिक्षु समास में, द् अन्त्य मानने पर, उसका प्रस्तुत सूत्र के अनुसार लोप होकर, स-भिक्खु ऐसा वर्णान्तर होगा। यदि द् अन्त्य माना नहीं, तो सूत्र २.७० के अनुसार, सद्-भिक्षु का सब्भिक्ख ऐसा वर्णान्तर होगा। सभिक्ख , एअगुणा-यहां पहले पद के अन्त्य व्यञ्जन का लोप हुआ है। सज्जणो तग्गुणा .... यहां पहले पद का अन्त्य न मान कर वर्णान्तर किया हुआ है।
१.१२ श्रद्-यह एक अव्यय है; वह प्रायः धा धातु के पूर्व आता है। उद्धातु के पीछे आने वाला उद् शब्द एक उपसर्ग है ।
१.३ निर दुर-धातु के पूर्व आने वाले ये दो उपसर्ग हैं । वा-यह अध्यय विकल्प दिखाता है। दुक्खिओ-दुःखित शब्द में, दुर् में से र का विसर्ग हुआ है।
१.१४ अन्तरो .. ... न भवति --अन्तर्, निर्, और दुर् के अन्त्य र के आगे आने वाला स्वर उस र् में संपृक्त होता है। अन्तर-यह एक अव्यय है और वह धातु अथवा संज्ञा से जुड़ कर आ सकता है : अन्तोवरि -( अन्तर + उपरि )-यहां अंतर शब्द के र के आगे स्वर होने भी र् का लोप हुआ है।)
१.१५-२१ इन सूत्रों में कहा हुआ विचार आगे जैसा कहा जा सकता है:
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