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प्राकृतव्याकरण-चतुर्थपाद
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यहाँ मारि में क्त्वा प्रत्यय को ई आदेश है। अम्हहं-सूत्र ४३८० देखिए । हत्थडा--त्र ४४२९ के अनुसार स्वार्थे प्रत्यय हत्थ के आगे आया है। गय....... जन्ति-यहाँ भञ्जिउ में क्त्वा-प्रत्यय को इउ आदेश है।
श्लोक २-1 इस श्लोक में, मुंज शब्द से मुंज नाम का मालव देश का राजा अथवा मुंज नाम का चालुक्य राजाओं का एक मंत्री अभिप्रेत है, ऐसा कुछ लोग कहते हैं ) , जिसमें मुंजका प्रतिबिंब पड़ा था ऐसा जल, पानी में प्रविष्ट न होकर, जिन हाथों से पिया गया है,उन दो हाथों का चुंबन लेकर,वह जलवाहक(पनिहारिनि) (बाला अपने) जीव को रक्षा करती है।
यहाँ चुम्बिवि में क्त्वा-प्रत्यय को इवि आदेश है।
श्लोक ३--हाथों को छोड़कर तू जा, ऐसा ही होने दो, उसमें क्या दोष है ? (परतु) वदि तू मेरे हृदय से बाहर निकल जाएगा, तो मैं समझूगी कि ( सचमुच ) मुंज क्रुद्ध हुआ है।
यहाँ विछोडवि में क्त्वा प्रत्यय को अवि आदेश है । नीसरहि--सूत्र ४५८३ देखिए ।
४.४४० श्लोक १ –संपूर्ण कषायरूपी सैन्य को जीतकर, संसार को ( जगको) अभय देकर, महाव्रत लेकर, ( और ) तत्त्वका ध्यान करके, ( ऋषिमुनि ) आनंद (शिव को प्राप्त करते हैं ।
यहाँ जप्पि, देप्पिणु, लेवि, झाएविणु में क्रम से एप्पि, एप्पिणु, एवि, एविण ये क्त्वा-प्रत्यय के आदेश हैं : कसाय-क्रोध, मान, माया और लोभ इनको जैनधर्म में कसाय (कषाय) कहते हैं ।
४.४४१ तुमः प्रत्ययस्य-हेत्वर्थक धातुसाधित अव्यय साधने का तुम् प्रत्यय है।
श्लोक १---अपना धन देना दुष्कर है; तप करना (किसी को भी) अच्छा नहीं लगता । योही सुख भोगा जाय ऐसा मन को लगता है,परंतु भोगना मात्र नहीं आता।
यहाँ देवं, करण, भुंजणह, भुंजणहिं इनमें क्रम से एवं, अण, अणहं, अहिं ये तुम्-प्रत्यय के आदेश है।
श्लोक २-संपूर्ण पृथ्वी को जीतना और (जीतकर) उसका त्याग करना, ब्रत (तप) लेना और (लेकर) उसका पालन करना, यह (सब) जग में शांति ( -नाथ ) तीर्थकर-श्रेष्ठ के बिना अन्य कौन कर सकता है ?
यहाँ जेप्पि में एप्पि, चए प्पिणु में एप्पिणु, लेविण में एविण और पालेवि में एवि
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