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टिप्पणियाँ
यहां तुम्हारेण में आर आदेश है । देवखु....'कन्तु--यहां अम्हारा में आर आदेश है। बहिणि......'कन्तु--यहाँ महारा में आर आदेश है।
४.४३५ अतोःप्रत्ययस्य-सूत्र २.१५६ ऊपर की टिप्पणी देखिए । ४४३६ त्र-प्रत्ययस्य--सूत्र २.१६१ ऊपर की टिप्पणी देखिए ।
श्लोक १--यहाँ पर, वहाँ पर, दरवाजे पर, घर में (इसी प्रकार) चंचल लक्ष्मी दौड़ती/घमती है; प्रियकर से वियुक्त हुए सुंदरी के समान वह निश्चलरूप से कहीं भी नहीं ठहरती।
यहाँ एत्तहे, तेत्तहे में एत्तहे (डेतहे) आदेश है । कहिँ-सूत्र३.६० देखिए ।
४.४३७ त्वतलोः प्रत्यययोः--त्व और तल् ( ता ) ये भाववाचक संज्ञा सिद्ध करने के प्रत्यय हैं । उदा-बालत्व, पीनता, वड्डप्पणु पाविअइ-यहाँ बड्डप्पण में पण आदेश है । वड्डत्तणहो तणेण---यहाँ वड्डतणहों में सूत्र २.१५४ के अनुसार त्तण प्रत्यय लगा है।
४.४३८ तव्य-प्रत्ययस्य--तव्य यह वि० क• धा० वि० सिद्ध करने का प्रत्यय है।
श्लोक १-( टीकाकार के मतानुसार, विद्यासिद्धि के लिए, कोई सिद्ध पुरुष ने नायिका को धन इत्यादि देकर, उसका पति मांगा; तब वह स्त्री कहती है: - ) इस (धन इत्यादि) को लेकर यदि मुझे प्रियकरका त्याग करना हो, तो मुझे मर जाना ही कर्तव्य (रहता) है, और कुछ भी नहीं।
यहाँ करिएव्वउ, मरिएव्वउं में इएव्वउ आदेश है। ध्रु-सूत्र ४.३६० देखिए ।
श्लोक २-जग में अतिरिक्त (ऐसे) मंजिष्ठा (नामक) वनस्पति को किसी देश से उच्चाटन उखाड़ा जाना ), अग्नि में औटना और धन से कूटा जाना ये सब सहन करना लगता है।
यहां सहेन्वउँ में एव्वउ आदेश है।
श्लोक ३–यद्यपि वह वेद प्रमाण है तो भी रजस्वला स्त्री के साथ सोना मना है, परंतु जागृत रहने को कौन रोकेगा ?
यहां सोएवा, जग्गेवा में एवा आदेश है। ४.४३६ क्त्वा-प्रत्ययस्य-सूत्र १.२७ ऊपर की टिप्पणी देखिए ।
श्लोक १-हे हृदय, यद्यपि मेच अपने वैरी/शत्रु हैं तो भी हम आकाश पर चरेंगे क्या ? हमारे दो हाथ हैं; यदि मरनाही हो तो उन्हें मारकर ही (हम) मरेंगे।
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