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प्राकृतव्याकरण- चतुर्थपाद
भसलु – सूत्र १ २४४ देखिए । पइट्ठउ, बइट्ठउ – पइट्ट और बइट्ट के आगे सूत्र ४४२९ के अनुसार स्वार्थे अ प्रत्यय आया है ।
४*४४५ श्लोक १ -- डूंगरोंसे मेघ लगे हैं; पथिक रोता हुआ जा रहा है; पर्वतको निगलने की इच्छा करनेवाला यह मेह सुंदरीके प्राणोंपर क्या दया करेंगा ?
रडन्तउ -- रडन्त ( सूत्र ३०१८१ ) शब्द को स्वार्थे अ प्रत्यय ( सूत्र ४४२९ ) लगा है ।
४२१
श्लोक १ – पैरपर अंतड़ी चिपटी है; शिर कंधे से गिर पड़ा है; तथापि ( जिसका ) हाथ ( अद्यापि अपने ) कटारी पर है (ऐसे उस) प्रियकरकी पूजा की जाती है (किवा - मैं पूजा करती हूँ ) |
खंधस्सु - यह षष्ठी पंचमी के बदले प्रयुक्त की गई है । अन्त्रडी- अन्त्र के आगे स्वार्थे अड (सूत्र ४४२९), फिर स्त्रीलिंगी ई ( सूत्र ४४३१ ) प्रत्यय आकर यह शब्द -स्त्रीलिंगी बना है । हत्थडउ – सूत्र ४४३० देखिए ।
श्लोक ३ - पक्षी शिरपर आरूढ होकर फल खाते हैं हैं; तथापि महान् वृक्ष पक्षिओं को पीड़ा नहीं पहुँचाते हैं अपना अपमान हुआ है ।
डाल (देशी) - शाखा | हिंदी में डाल ;
४ ४४६ श्लोक १ – मजे में क्षणभर में शिर पर शेखरके ( गजरा ) स्वरूपमें रखा, क्षणभर में रतिके कंठपर लटकते रखा, क्षणभर में ( अपने ) गले में डाला हुआ, ऐसे उस काम के पुष्प ( दाम ) धनुष्यको नमस्कार करो ।
और शाखाओं को तोड़ते अथवा न समझते हैं कि
यहाँ शौरसेनी भाषाके समान किद, रदि, विणिम्मविदु, विहिदु इन शब्दों में त का द हो गया है |
४४४७ प्राकृत इत्यादि भाषाओंके लक्षणोंका होनेवाला व्यत्यय यहाँ कहा है ।
४-४४८ अष्टमे – अष्टम अध्याय में । प्रस्तुत प्राकृत व्याकरण हेमचंद्र के व्याकरण का आठवाँ अध्याय है । सप्ताध्यायी निबद्ध संस्कृतवत् - हेमचंद के व्याकरण के पहले - सात अध्यायों में संस्कृत व्याकरणका विवेचन है ।
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श्लोक १ – नीचे स्थित सूर्यके तापका निवारण करनेके लिए मानो छत्र मौचे धारण करती है ऐसी, ( और ) वराह के श्वाससे दूर फेकी गई, ( ऐसी ) शेषसहित
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