________________
४२२
टिप्पणियां
पृथ्वी विजयी है । (विष्णने वराह अवतार लेकर पृथ्वीको समुद्रसे बाहर निकाला, यह पौराणिक कथा इस श्लोक में अभिप्रेत है)। अत्र चतुर्थ्या... ... सिद्धः-इस प्राकृत व्याकरणमें चतुर्थीका आदेश नहीं कहा है; वह संस्कृतके समानही सिद्ध होता है । उदा०--हेट्ठट्ठिय इत्यादि श्लोक में निवारणाय ( यह चतुर्थी एकवचन है)।
सिद्धग्रहणं मङ्गलार्थम्—यह प्राकृत व्याकरण सूत्र-निबद्ध है। सूत्रका लक्षण ऐसा है:-अल्पाक्षरमसंदिग्धं सारवद् विश्वतोमुखम् । अस्तोभमनवधं च सत्रं सुत्रविदो विदुः ॥ इसलिए सूत्र में अनावश्यक शब्द नहीं होते हैं। तथापि प्रस्तुत सूत्र में "सिद्धम्' शब्द आपाततः अनावश्यक दिखता है। परंतु उसका प्रयोजन है। हेमचंद्र उसके बारे में कहता है:- ग्रंथके अंतमें मंगल हो, इस प्रयोजनसे सिद्ध शब्द इस सूत्र में प्रयुक्त किया है।
इस पादके समाप्तिसचकके अनन्तर कुछ पांडुलिपियों में ग्रंथकृत्-प्रशस्ति के स्वरूपमें अगले श्लोक दिए गए दिखाई देते हैं :----
आसीद् विशां पतिरमुद्रचतुः समुद्र
मुद्राङ्कितक्षितिभरक्षम बाहुदण्डः । श्रीमूलराज इति दुर्धर वैरि कुम्भि
कण्ठीरवः शुचि चुलुक्यकुलावतंसः ॥ १ ॥
तस्याम्पये समजनि प्रबल प्रताप
तिग्मधुतिः क्षितिपतिजयसिंहदेवः । येन स्ववंश-सवितर्यपरं सुधांशी
श्रीसिद्धराज इति नाम निजं व्यलेखि ॥ २॥
सम्यग् निषेव्य चतुरश्चतुरोप्युपायान्
जित्वोपभुज्य च भुवं चतुरब्धिकाञ्चीम् । विद्याचतुष्टयविनीतमतिजितात्मा
काष्ठामवाप पुरुषार्थचतुष्टये यः ॥ ३ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org