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टिप्पणियां
४.४२४ श्लोक १-अरीमा, मुझे पश्चात्ताप हो रहा है कि सायंकाल में मैंने प्रियकरके साथ कलह किया। सचमुच विनाशकाल में बुद्धि विपरीत होती है ।
यहाँ घई यह निपात निरर्थक ( विशेष अर्थ न होते ) प्रयुक्त किया गया है । अम्मडि, बुद्धडी-यहाँ सूत्र ४.४२९ के अनुसार पहले स्वार्थे अह प्रत्यय आया और बाद में सूत्र ४१४३१ के अनुसार स्त्रीलिंगी ई प्रत्यय लगा है पच्छायाबडा-सूत्र ४°४२९ देखिए।
४°४२५ श्लोक १-अरे प्रिय, बताओ कि यह ( ऐसा ) परिहास किस देश में किया जाता है । हे प्रिय, तुम्हारे लिए मैं क्षीण होती हूँ और तुम तो किसी दूसरी के लिए ( क्षीण होते हो )। ___ यहां केहि और रेसि ये तादर्थी निपात हैं। परिहासडी-सूत्र ४°४२९-४३१ देखिए । एवं..."हायौं-तेहिं और रेसिं के उदा०--कहि कसु रेसि तुहुँ अवर कम्भारंभ करेसि । कसु तेहिं परिगहु ( कुमार-पालचरित, ८७०-७१ ) । वड्ड तणेण–यहाँ तणेण तादी निपात है ।
४°४२६ श्लोक १-जो थोड़ा भूला जाता है फिर भी स्मरण किया जाता है वह प्रिय (कहा जाता है); परंतु जिसका स्मरण होता है और जो नष्ट होता है उस स्नेह का नाम क्या ?
यहाँ पुणु में स्वार्थे डु है । मणा-सूत्र ४.४१८ देखिए । कई--काई ( सूत्र ४.३६७ ) में से आ का ह्रस्व ( सूत्र ४ ३२९ ) स्वर हुआ है। विणु..."वलाहुं-यहां विणु में स्वार्थे डु है ।
४.४२७ श्लोक १-जिसके अधीन में अन्य इंद्रियां हैं (ऐसे ) मुख्य जिव्हेंद्रिय को वश में करो । तुम्बिनी के मूल नष्ट हो जाने पर (उसके) पत्ते अवश्य सूख जाते हैं ।
यहां अबसें में स्वाथें हैं है । सुक्कहि-सूत्र ४.३८२ देखिए । अवस...."अहिं यहाँ अवस शब्द में स्वार्थे ड (अ) है ।
४°४२८ श्लोक १-एक ही बार जिनका शील खंडित हुआ है उन्हें प्रायश्चित्त दिये आते है; परंतु जो हररोज ( शील ) खंडित करता है, उसे प्रायश्चित्त का क्या उपयोग ?
यहाँ एक्कसि में स्वार्थे डि है । देज्जाहि-दे धातु के कर्मणि अंग के वर्तमानकाल तृ. पु. अ०व० ।
४.४२६ श्लोक १--जब विरहाग्नि की ज्वालाओं से जला हुआ पथिक रास्ते पे दिखाई पड़ा तब सब पथिकों ने मिलके उसको अग्नि पर रखा ( कारण वह मर गया था)।
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