________________
प्राकृतव्याकरण-चतुर्थपाद
४१५
... पिअहु-सूत्र ४३८४ देखिए । केरएं-केर शब्द के आगे सूत्र ४०४२९ के अनुसार स्वार्थे अ प्रत्यय आया; फिर सूत्र ४.३४२ के अनुसार केरएँ यह तृतीया एकवचन हुआ। हुंकारडएं-हुँकारड शब्द का तृतीया ए०व० ( सूत्र ४.३४२)। हुँकारड शब्द में हुँकार के आगे सूत्र ४.४२९ के अनुसार स्वार्थ प्रत्यय आया है। तृणाई-यहाँ तणाई ऐसा भी पाठभेद है ।
श्लोक १६-~-स्वस्थ अवस्था में रहने वालों से सभी लोग बोलते हैं। परंतु पीडित/दुःखित लोगों से 'डरो मत' ऐसा वचन जो सज्जन है वही कहता है।
साह-सूत्र ४.३६६ देखिए । आदन-(देशी)-आर्त । मब्भोसडो-मन्भीसा शब्द को सूत्र ४.४२९ के अनुसार स्वार्थे अड प्रत्यय लगकर, फिर सूत्र ४.४३१ के के अनुसार स्त्रोलिंगी ई प्रत्यय लगा है।
श्लोक १७-अरे मुग्ध हृदय, जिसे-जिसे तुम देखते हो, उस-उस पर (यदि तुम) अनुरक्त असक्त हो जाते, तो फटने वाले लोहको जैसे धन के प्रहार सहन करने पड़ते हैं वैसे ताप तुम्हें सहन करना पड़ेगा।
फुट्टणएण-सूत्र ४.४४३ देखिए । घण-मराठी में धण ।
४४२३ श्लोक १ ---मैंने समझा था कि हुहरु शब्द करके मैं प्रेमरूपी सरोवर में डूब जाऊँगी। परंतु अकस्मात् कल्पना न होते ही विरहरूपी नौका (मुझे) मिल गई।
यहाँ हुहुरु शब्द ध्वनि-अनुकारी है । नवरि-सूत्र २.१८८ देखिए ।
श्लोक २-जब आँखों से प्रियकर देखा जाता है तब कस-कस् शब्द करके नहीं खाया जाता है अथवा धुट घुट शब्द करते नहीं पीया जाता है। तथापि योंही (एवमपि) सुखस्थिति होती है ।
यहाँ कसरक्क और धुंट शब्द ध्वनि-अनुकारो हैं। खज्जइ-खा धातु का कर्मणि रूप हैं । नउ-यहाँ 'न' शब्द को स्वार्थे प्रत्यय लगा है।
श्लोक ३--मेरा नाथ जैन प्रतिमाओं को वंदन करते हुए अद्यापि घर में ही है ( यानी प्रवास को नहीं गया है ); तब तकही गवा में विरह मर्कट-चेष्टा करने लगा है।
यहाँ धुग्ध चेष्टानुकरणी शब्द है । ताउँ-सूत्र ४.४०६ देखिए ।
श्लोक ४- यद्यपि उसके माथे पर जीणं कमली थी और गले में (पूरे) बीसकी मणियाँ नहीं थी, तो भी सुंदरी ने सभागृह में सभासदों से उठक-बैठक ( ऊठ-बैस ) करवायी।
यहाँ उट्ठ वईस चेष्टानुकरणी शब्द है । लोअडी-लोमपूटी।
मणियडा-मणि शब्द को सूत्र ४४२९ के अनुसार स्वार्थे अड प्रत्यय लगा है। उट्ठबईस- मराठी में ऊठ बैस, उठा बशा ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org