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प्राकृतव्याकरण-चतुर्थपाद
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श्लोक २-जैसे सत्पुरुष हैं वैसे कलह हैं, जैसी नदियां हैं वैसे धुमाव मोड हैं। जैसे पर्वत हैं वैसे कंदराएं हैं। हे हृदय, तू क्यों खिन्न होता है ? ___ डोंगर-मराठी में डोंगर । विसूरहि-सूत्र ४.३८३ देलिए । विसूर धातु खिद् धातु का आदेश है (सूम ४१३२)।
श्लोक ३—सागर को छोड़कर जो अपने को तट पर फेंकते हैं, उन शंखों का अस्पृश्य-संसर्ग है; केवल ( दूसरों के द्वारा ) फूंके जाते हुए वे ( इधर-उधर ) भ्रमण करते है।
छड्डेविणु-सूत्र ४.४४० देखिए । छड्ड धातु मुच् धातु का आदेश है (सूत्र ४.९१ ) । घल्ल (देशो)-मराठी में घालणे । विट्टाल-मराठी में विटाल ।
श्लोक ४–हे मूर्ख, (अनेक) दिनों में जो अजित/संचित किया है, उसे खा; एक दाम (पसा ) भी मत संचित कर । कारण ऐसा कोई भय आता है कि जिससे जन्म का ही अंत होता है।
वढ-श्लोक ४.४२२.१२ के बाद देखिए । द्रवक्कउ-द्रवक्क को सूत्र ४.४२९ के अनुसार स्वार्थे अ प्रत्यय लगा है !
___ श्लोक ५-यद्यपि अच्छे प्रकार से, सर्व आदरपूर्वक, हरि ( =श्रीकृष्ण ) एकेक ' (गोपी) को देखता है, तथापि जहाँ कहाँ राधा है वहां उसको नजर पड़ती है। स्नेह से भरे हुए नयनों को रोकने के लिए कौन समर्थ है ?
राही-राधा । सूत्र ४३२९ के अनुस्वार राधा शब्द में से स्वर में बदल हुआ।
संवरेबि-थुत्र ४°४४१ देखिए । पलुट्टा-पलोट्ट (सूत्र ४०२५८) शब्द में ओ का उ हुआ है।
लोक ६-वैभव में स्थिरता किसकी ? यौवन में गवं किसका? इसलिए गाढे रूप से बिबित होगा (शब्दश:-लगेगा) ऐसा लेख भेजा जा रहा है।
थिरत्तणउँ-थिर (स्थिर) शब्द को सूत्र २.१५४ के अनुसार तण प्रत्यय लगा; बाद में उसके आगे सूत्र ४.४२९ के अनुसार स्वार्थे अ प्रत्यय आया।
मरट्र (देशी)-गर्व । लेखडउ-सूत्र ४.४३० के अनुसार लेख के आगे स्वार्थ प्रत्यय आया है।
श्लोक ७-कहां चंद्रमा और कहां णमुद्र ? कहाँ मयूर, कहाँ मेघ ? यद्यपि सज्जन दूर ( रहते ) हो, तो भी उनका स्नेह असाधारण होता है ।
असड्ढल-असाधारण । श्लोक ८---अन्य अच्छे वृक्षों पर हाथी अपनी सूंढ कौतुक से ( क्रीडा के स्वरूप
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